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________________ 344] [अनुयोगद्वारसूत्र अप्कायिक और तेजस्कायिक जीवों के बद्ध और मुक्त औदारिकशरीरों का परिमाण भी इतना ही जानना चाहिये। पृथ्वीकायिक आदि जीवों के बद्ध और मुक्त प्रौदारिकशरीरों का क्रमशः जो असंख्यात और अनन्त परिमाण बताया है, उसका विशदता के साथ स्पष्टीकरण पूर्व में सामान्य से बद्ध और मुक्त औदारिकशरीरों की प्ररूपणा के प्रसंग में किया जा चुका है, तदनुरूप वह समस्त वर्णन यहाँ भी समझ लेना चाहिए। बद्ध वैक्रिय और ग्राहारक शरीर इनको भवस्वभाव से ही नहीं होते हैं। किन्तु मुक्त शरीर होते हैं / वैक्रियशरीर सामान्य मुक्त प्रौदारिकशरीरों के समान अनन्त और मुक्त प्राहारकशरीर भूतकालिक मनुष्यभवों की अपेक्षा अनन्त होते हैं। पृथ्वीकायिकों आदि के बद्ध और मुक्त तैजस-कार्मण शरीरों के लिये जो औदारिक शरीरों के परिमाण का संकेत किया है, उसका तात्पर्य यह है कि बद्ध तेजस-कार्मण बद्ध औदारिकवत् असंख्यात और मुक्त तैजस-कार्मण मुक्त औदारिकवत् अनन्त हैं। वायुकायिकों के बद्धमुक्त शरीर [3] वाउकाइयाणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पन्नत्ता ? गो० ! जहा पुढविकाइयाणं ओरालियसरीरा तहा भाणियन्वा / वाउकाइयाणं भंते ! केवतिया वेउग्वियसरीरा पन्नत्ता? गो० ! दुविहा पं०। तं०-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य / तत्थ गंजे ते बद्धल्लया ते णं असंखेज्जा समए 2 अवहीरमाणा 2 पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमेलेणं कालेणं अवाहीरंति / नो चेव णं अवहिया सिया। मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालियमुक्केल्लया / आहारयसरीरा जहा पुढविकाइयाणं बेउब्वियसरीरा तहा भाणियब्वा / तेयग-कम्मयसरीरा जहा पुढ विकाइयाणं तहा भाणियन्वा / [420-3 प्र.] भगवन् ! वायुकायिक जीवों के प्रौदारिकशरीर कितने कहे गये हैं ? [420-3 उ.] गौतम ! जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों के औदारिक शरीरों की वक्तव्यता है, वैसी ही यहाँ जानना चाहिये। [प्र.] भगवन् ! वायुकायिक जीवों के वैक्रियशरीर कितने हैं ? | उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं--बद्ध और मुक्त / उनमें से बद्ध असंख्यात हैं। यदि समय-समय में एक-एक शरीर का अपहरण किया जाये तो (क्षेत्र) पल्योपम के असंख्यातवें भाग में जितने प्रदेश हैं, उतने काल में पूर्णतः अपहृत हों। किन्तु उनका किसी ने कभी अपहरण किया नहीं है और मुक्त औधिक औदारिक के बराबर हैं और आहारकशरीर पृथ्वीकायिकों के वैक्रियशरीर के समान कहना चाहिये। बद्ध, मुक्त तेजस, कार्मण, शरीरों की प्ररूपणा पृथ्वीकायिक जीवों के बद्ध एवं मुक्त तैजस और कार्मण शरीरों जैसी समझना चाहिये / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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