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________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [345 विवेचन–वायुकायिक जीवों के बद्ध और मुक्त औदारिकशरीरों के परिमाण में तो कोई विशेषता नहीं है। वे क्रमशः पृथ्वीकायिक जीवों के समान असंख्यात और अनन्त हैं / लेकिन इनमें वैक्रियशरीर भी संभव होने से तत्सम्बन्धित स्पष्टीकरण इस प्रकार है वायुकायिक जीवों के बद्ध वैक्रियशरीर असंख्यात हैं और उस असंख्यात का परिमाण बताने के लिये कहा है कि यदि ये शरीर एक-एक समय में निकाले जाएँ तो क्षेत्रफल्योपम के असंख्यातवें भाग में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने समयों में इनको निकाला जा सकता है / तात्पर्य यह है कि क्षेत्रपल्योपम के असंख्यातवें भाग के आकाश में जितने प्रदेश है, उतने ये बद्ध वैक्रियशरीर होते हैं। परन्तु यह प्ररूपणा समझने के लिये है / वस्तुतः अाज तक किसी ने इस प्रकार अपहरण करके निकाला नहीं है। __कदाचित् यह कहा जाए कि असंख्यात लोकाकाशों के जितने प्रदेश हैं, उतने वायुकायिक जीव हैं, ऐसा शास्त्रों में उल्लेख है, तो फिर उनमें से वैक्रियशरीरधारी वायुकाधिक जीवों की इतनी अल्प संख्या बताने का क्या कारण है ? इसका समाधान यह है कि वायुकायिक जीव चार प्रकार के हैं१. सूक्ष्म अपर्याप्त वायुकायिक, 2. सूक्ष्म पर्याप्त वायुकायिक, 3. बादर अपर्याप्त वायुकायिक प्रौर 4 बादर पर्याप्त वायुकायिक / इनमें से प्रादि के तीन प्रकार के वायुकायिक जीव तो असंख्यात लोकाकाशों के प्रदेशों जितने हैं और उनमें वैक्रियलब्धि नहीं होती है। बादर पर्याप्त वायुकायिक जीव प्रतर के असंख्यातवें भाग में जितने प्राकाशप्रदेश होते हैं, उतने हैं, किन्तु वे सभी वैक्रियलब्धिसम्पन्न नहीं होते हैं। इनमें भी प्रसंख्यातवें भागवर्ती जीवों के ही वैक्रियलब्धि होती है। वैक्रियलब्धिसम्पन्नों में भी सब बद्ध वैक्रियशरीरयुक्त नहीं होते, किन्तु असंख्येय भागवर्ती जीव ही बद्धवैक्रिय शरीरधारी होते हैं। इसलिये वायूकायिक जीवों में जो बद्धवैक्रियशरीरधारी जीवों की संख्या कही गई है, वही सम्भव है / इससे अधिक बद्धवैक्रियशरीरधारी वायुकायिक जीव नहीं होते हैं। वायुकायिक जीवों के बद्ध-मुक्त प्राहारकशरीर के विषय में पृथ्वीकायिक जीवों के मुक्त वैकियशरीर के समान जानना चाहिये / अर्थात् वायुकाथिक जीवों के आहारकलब्धि का अभाव होने से बद्धाहारकशरीर तो होते ही नहीं किन्तु अनन्त मुक्त आहारकशरीर हो सकते हैं। बद्ध-मुक्त तैजस-कार्मणशरीरों की संख्या पृथ्वीकायिकों के इन्हीं दो शरीरों के बराबर क्रमशः असंख्यात और अनन्त जानना चाहिये। वनस्पतिकायिकों के बद्ध-मुक्त शरीर [4] वणस्सइकाइयाणं ओरालिय-उब्विय-आहारगसरीरा जहा पुढ विकाइयाणं तहा भाणियव्वा / वणस्सइकाइयाणं भंते ! केवइया तेयग-कम्मगसरीरा पण्णत्ता? गो० ! जहा ओहिया तेयग-कम्मगसरीरा तहा वणस्सइकाइयाण वि तेयग-कम्मगसरीरा भाणियन्ता / 420-4] वनस्पतिकायिक जीवों के प्रौदारिक, वैक्रिय और पाहारक शरीरों को पृथ्वीकायिक जीवों के प्रौदारिकादि शरीरों के समान समझना चाहिये / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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