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________________ 346] [अनुयोगद्वारसूत्र [प्र.] भगवन् ! बनस्पतिकायिक जीवों के तैजस-कार्मण शरीर कितने कहे गए हैं ? [उ. गौतम ! प्रोधिक तैजस-कार्मण शरीरों के प्रमाण के बराबर वनस्पतिकायिक जीवों के तैजस-कार्मण शरीरों का प्रमाण जानना चाहिये। विवेचन उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि वनस्पतिकायिकों के बद्धौदारिकशरीर पृथ्वीकायिक जीवों के समान जानना चाहिये / अर्थात् असंख्यात होते हैं। इसका कारण यह है कि साधारण वनस्पतिकायिक जीव अनन्त होने पर भी उनका एक शरीर होने से ग्रौदारिकशरीर असंख्यात ही हो सकते हैं। इनके वक्रियलब्धि और ग्राहारकलब्धि नहीं होने से मुक्त-वक्रिय-ग्राहारकशरीर ही होते हैं। उनका परिमाण अनन्त है। परन्तु इनके बद्ध और मुक्त तैजस-कार्मणशरीरअनन्त हैं। क्योंकि वे प्रत्येक जीव के स्वतन्त्र होते हैं और साधारण जीवों के अनन्त होने से इन दोनों को अनन्त जानना चाहिये। विकलत्रिकों के बद्ध-मुक्त शरीर 421. [1] बेइंदियाणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पसत्ता ? गोतमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य / तत्थ णं जे ते बद्धल्लया ते णं असंखेज्जा, असंखेज्जाहि उस्सप्पिणी-ओसपिणोहि अवहीरंति कालओ, खेत्ततो असंखेज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखेज्जइभागो, तासि णं सेढीणं विक्खंभसूयो असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ असंखेज्जाई सेढिवग्गमूलाई; बेइंदियाणं ओरालियसरीरेहिं बद्धेल्लएहिं पयरं अवहीरइ असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहि कालओ, खेत्तओ अंगुलपयरस्स आवलियाए य असंखेज्जइभागपडिभागेणं / मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भाणियव्वा / वेउब्विय-आहारगसरीरा गं बद्धेल्लया नस्थि, मुक्केल्लया जहा ओरालियसरीरा ओहिया तहा भाणियवा। तेया-कम्मगसरोरा जहा एतेसि चेव पोरालियसरीरा तहा भाणियव्वा / [421-1 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रियों के औदारिकशरीर कितने कहे गये हैं ? [421-1 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा--बद्ध और मुक्त / उनमें से बद्धनौदारिकशरीर असंख्यात हैं। कालत: असंख्यात उत्सपिणियों और अवस पिणियों से अपहृत होते हैं / अर्थात् असंख्यात उत्सपिणियों-अवसपिणियों के समय जितने हैं। क्षेत्रत: प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों के प्रदेशों की राशिप्रमाण हैं। उन श्रेणियों की विष्कभसूची असंख्यात कोटाकोटि योजनप्रमाण है / इतने प्रमाण वाली विष्कम्भसूची असंख्यात श्रेणियों के वर्गमूल रूप है। हीन्द्रियों के बद्धौदारिकशरीरों द्वारा प्रतर अपहृत किया जाए तो काल की अपेक्षा असंगात उन्सपिणी-अवसर्पिणी कालों में अपहृत होता है तथा क्षेत्रत: अंगुल मात्र प्रतर और आवलिका के असंख्यातव भाग-प्रतिभाग (प्रमाणांश) से अपहृत होता है। जैसा प्रौधिक मुक्त प्रौदारिकशरीरों का परिमाण कहा है, वैसा इनके मुक्तयौदारिकशरीरों के लिये भी जानना चाहिए / द्वीन्द्रियों के बद्धवैक्रिय-पाहारकशरीर नहीं होते हैं और मुक्त के विषय में जैसा प्रौधिक मुक्तौदारिकशरीर के विषय में कहा है, वैसा जानना चाहिये / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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