________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [347 तैजस और कार्मण के बद्ध-मुक्त शरोरों के लिए जैसा इनके औदारिकशरीरों के विषय में कहा है, तदनुरूप कथन करना चाहिए। [2] जहा बेइंदियाणं तहा तेइंदियाणं चरिदियाण वि भाणियन्त्र / [421-2] द्वीन्द्रियों के बद्ध-मुक्त पांच शरीरों के सम्बन्ध में जो निर्देश किया है, वैसा ही त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में भी कहना चाहिये। विवेचन--प्रस्तुत पाठ में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के बद्ध और मुक्त शरीरों की प्ररूपणा की है / उसका हीन्द्रिय की अपेक्षा से स्पष्टीकरण इस प्रकार है द्वीन्द्रियों के बद्धौदारिकशरीर असंख्यात हैं और उस असंख्यात का परिमाण काल की अपेक्षा असंख्यात उत्सपिणी और अवसर्पिणी काल के जितने समय होते हैं, तत्प्रमाण है। क्षेत्र की अपेक्षा वे शरीर प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों के प्रदेशों की राशिप्रमाण हैं। इन श्रेणियों की विक्रभसूची असंख्यात कोटाकोटि योजनों की जानना चाहिये / इतने प्रमाण वाली विष्कंभ (विस्तार) सूची असंख्यात श्रेणियों के वर्गमूल रूप होती है। इसका तात्पर्य यह है कि प्राकाशथेणि में रहे हुए समस्त प्रदेश असंख्यात होते हैं, जिनको असत्कल्पना से 65536 समझ ले। ये 65536 असंख्यात के बोधक है। इस संख्या का प्रथम वर्गमूल 256, दूसरा वर्गमूल 16, तीसरा वर्गमूल 4 तथा चौथा वर्गमूल 2 हुआ / कल्पित ये वर्गमूल असंख्यात वर्गमूल रूप हैं / इन वर्गमूलों का जोड़ करने पर (256+16+4+2= 278) दो सौ अठहत्तर हुए। यह 278 प्रदेशों वाली यह विष्कम्भसूची है। अब इसी गरी रप्रमाण को दूसरे प्रकार से बताने के लिये सूत्र में पद दिया है ............ पयरं अवहीर असंखेज्जाहि उस्सपिणि-ग्रोसपिणोहि कालयो' अर्थात दीन्द्रिय जीवों के बद्धऔदारिकशरीरों से यदि सब प्रतर खाली किया जाए तो असंख्यात उत्सपिणीअवपिणी कालों के समयों से वह समस्त प्रतर द्वीन्द्रिय जीवों के बद्ध प्रौदारिक शरीरों से खाली किया जा सकता है और क्षेत्रतः 'अंगलपयरस्स प्रावलियाए यं असंखेज्जइभागं पडिभागेण' अर्थात अंगुल प्रतर के जितने प्रदेश हैं उनको एक-एक द्वीन्द्रिय जीवों से भरा जाए और फिर उन प्रदेशों से आवलिका के असंख्यातवें भाग रूप समय में एक-एक द्वीन्द्रिय जीव को निकाला जाए तो पावलिका के असंख्यात भाग लगते हैं। इतने प्रदेश अंगुल प्रतर के हैं। उस प्रतर के जितने प्रदेश हैं, उतने द्वीन्द्रिय जीवों के बद्धग्रौदारिकशरीर हैं। इस प्रकार से बताई गई संख्या में पूर्वोक्त कथन से कोई भेद नहीं है, मात्र कथन-शैली की भिन्नता है / द्वीन्द्रियों के मुक्त औदारिकशरीरों की प्ररूपणा औधिक मुक्तप्रौदारिकशरीरों के समान द्वीन्द्रियों के ववक्रिय-अाहारकशरीर नहीं होते हैं / मुक्तवैक्रिय-ग्राहारकशरीरों को प्ररूपणा औधिक मुक्त औदारिकशरीरों के समान है-वे अनन्त हैं। इनके बद्ध, मुक्त तेजस, कार्मण शरीरों को प्ररूपणा इन्हीं के बद्ध, मुक्त औदारिकशरीरों की तरह क्रमश: असंख्यात और अनन्त जानना चाहिए। वीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणा द्रोन्द्रियों के बद्ध-मुक्त शरीरों के समान है / मात्र 'द्वीन्द्रिय' के स्थान में 'त्रीन्द्रिय' और 'चतुरिन्द्रिय' शब्द का प्रयोग करना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org