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________________ 358] [मनोजवारसूत्र विवा---यह सूत्र भावप्रमाण का वर्णन करने के लिये भूमिका रूप है / 'भवनं भावः' यह भाष शरूद की व्युत्पत्ति है, अर्थात् होना यह भाव है। भाब वस्तु का परिणाम है। लोक में वस्तुएं दो प्रकार की है-जीव-सचेतन और अजीव. अचेतन / सचेतन वस्तु का परिणाम ज्ञानादि रूप है और अचेतन का परिणाम वर्णादि रूप है। उपर्यक्त कथन का सारांश यह है कि विद्यमान पदार्थों के वर्णादि और ज्ञानादि परिणामों को भाव और जिसके द्वारा उन वर्णादि परिणामों का भलीभांति बोध हो, उसे भावप्रमाण कहते हैं। वह भावप्रमाण तीन प्रकार का है-गुणप्रमाण, नयप्रमाण और संख्याप्रमाण। गुणों से द्रव्यादि का अथवा गुणों का गुण रूप से ज्ञान होता है अतएव बे गुणप्रमाण कहलाते हैं / अमन्तधर्मात्मक वस्तु का एक अंश द्वारा निर्णय करना नय है / इसी को नयप्रमाण कहते हैं / संस्था का अर्थ है गणना करना / यह गणना रूप प्रमाण संख्याप्रमाण है / भावप्रमाण के उक्त तीन भेदों का प्रागे विस्तृत वर्णन किया जाता है / गुणप्रमाण 428. से कितं गुणपमाणे? गुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा–जीवगुणप्पमाणे य अजीवगुणप्पमाणे य / [428 प्र. भगवन् ! गुणप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [428 उ. आयुष्मन् ! गुणप्रमाण दो प्रकार का कहा गया है जीवमुणप्रमाण और प्रजीवगुणप्रभाम। विवेचन -गुणप्रमाण के स्वरूपवर्णन को प्रारंभ करते हुए उसके दो भेदों का उल्लेख किया है। इन भेदों में से अल्पवक्तच होने से पहले अजीवगुणप्रमाग का निर्देश करते हैं / अजीवगुणप्रमाणनिरूपण 429. ते कि तं अजीवगुणपमाणे? अजीधणप्पमाणे पंचविहे पण्णसे / तं जहा- वण्णगुणप्पमामे मंषगुणप्पमाणे रसगुणप्पमाणे फासगुणप्पमाणे संठाणगुणप्पमाणे [429 प्र.] भगवन् ! अजीवगुणप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [429 उ.] आयुष्मन् ! अजीवगुणप्रमाण पांच प्रकार का कहा गया है-१. वर्णगुणप्रमाण, 2. गंधगुणप्रमाण, 3. रसगुणप्रमाण, 4. स्पर्शगुणप्रमाण और 5. संस्थानगुणप्रमाण / 430. से कि तं वणगणप्पमाणे ? वण्णगुणप्पमाणे पंचविहे पणते। तं. कालवयमुणप्पमाले जाव सुकिल्लवण्णगुणप्पमाणे। से तंबण्णगणप्पमाये। [430 प्र.] भगवन् ! वर्णगुणप्रमाण का क्या स्वरूप है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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