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________________ सूत्रस्पशिकनियुक्ति निरूपण] [463 भगवंताणं केइ अत्याहिणारा अहिगया भवंति, केसिंचि य केइ अहिगया भवंति, ततो तेसि अहिगयाणं अत्थाणं अभिगमणत्थाए पदेणं पदं वत्तइस्सामि संहिता य पदं चेव पदत्थो पदविग्गहो। चालणा य पसिद्धी य, छव्विहं विद्धि लक्खणं // 135 // से तं सुत्तप्फासियनिज्जुत्तिअणुगमे / से तं निज्जुत्तिअणुगमे / से तं अणुगमे / [605 प्र.] भगवन् ! सूत्रस्पशिकनियुक्त्यनुगम का क्या स्वरूप है ? [605 उ.] अायुष्मन् ! (जिस सूत्र की व्याख्या की जा रही है उस सूत्र को स्पर्श करने वाली नियुक्ति के अनुगम को सूत्रस्पर्शिक-निर्युक्त्यनुगम कहते हैं।) इस अनुगम में अस्खलित, अमिलित, अव्यत्यानंडित, प्रतिपूर्ण, प्रतिपूर्णघोप, कंठोष्ठविप्रमुक्त तथा गुरुवाचनोपगत रूप से सूत्र का उच्चारण करना चाहिये। इस प्रकार से सूत्र का उच्चारण करने से ज्ञात होगा कि यह स्वसमयपद है, यह परसमयपद है, यह बंधपद है, यह मोक्षपद है, अथवा यह सामायिकपद है, यह नोसामायिकपद है। सूत्र का निर्दोष विधि से उच्चारण किये जाने पर कितने ही साधु भगवन्तों को कितनेक अर्थाधिकार अधिगत हो जाते हैं और किन्हीं-किन्हीं को (क्षयोपशम की विचित्रता से) कितनेक अर्थाधिकार अनधिगत रहते हैं -- ज्ञात नहीं होते हैं / अतएव उन अनधिगत अर्थों का अधिगम कराने के लिये (ज्ञात हो जाये इसलिये) एक-एक पद की प्ररूपणा (व्याख्या) करूंगा / जिसकी विधि इस प्रकार है 1. संहिता, 2. पदच्छेद, 3. पदों का अर्थ, 4. पदविग्रह, 5. चालना और 6. प्रसिद्धि / यह व्याख्या करने की विधि के छह प्रकार हैं। यही सूत्रस्पशिक नियुक्त्यनुगम का स्वरूप है। इस प्रकार से नियुक्त्यनुगम और अनुगम की वक्तव्यता का वर्णन पूर्ण हुना। विवेचन–सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेप में किये गये संकेतानुसार सूत्रस्पशिकनियुक्त्यनुगम की यहाँ व्याख्या की है / यह निर्युक्त्यनुगम सूत्रस्पशिक है / सूत्र का लक्षण इस प्रकार है अप्पगंथमहत्थं बत्तीसा दोसविरहियं जं च / लक्खणजुत्तं सुत्तं अट्ठहि य गुणेहि उववेयं / / अर्थात् जो अल्पग्रन्थ (अल्प अक्षर वाला) और महार्थयुक्त (अर्थ की अपेक्षा महान्-अधिक विस्तार वाला) हो, (जैसे-उत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्तं सत्) तथा बत्तीस दोषों से रहित, आठ गुणों से सहित और लक्षणयुक्त हो, उसे सूत्र कहते हैं। सूत्र के बत्तीस दोषो के नाम--सूत्रविकृति के कारणभूत बत्तीस दोषों के लक्षण सहित नाम इस प्रकार हैं--- 1. अलीक (अनत) दोष-अविद्यमान पदार्थों का सद्भाव बताना, जैसे जगत् का कर्ता ईश्वर है और विद्यमान पदार्थों का अभाव बताना-अपलाप करना, जैसे आत्मा नहीं है। यह दोनों असत्य-प्ररूपक होने से अलीकदोष हैं / 2. उपघातजनक-जीवों के धात का प्ररूपक, जैसे बेद में वर्णन की गई हिंसा धर्मरूप है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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