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________________ 390] [अनुयोगद्वारसूत्र विशुद्धतर नैगमनय की दृष्टि से उसने उत्तर दिया-दक्षिणार्धभरत में रहता हूँ। प्रश्नकर्ता ने पुनः प्रश्न पूछा-दक्षिणार्धभरत में तो अनेक ग्राम, नगर, खेड, कर्वट, मडंब, द्रोणमुख, पट्टन, प्राकर, संवाह, सन्निवेश हैं, तो क्या आप उन सबमें रहते हैं ? इसका विशुद्धतर नैगमनयानुसार उसने उत्तर दिया-मैं पाटलिपुत्र में रहता हूँ। प्रश्नकर्ता ने पुनः पूछा-पाटलिपुत्र में अनेक घर हैं, तो आप उन सभी में निवास करते हैं ? तब विशुद्धतर नैगमनय की दृष्टि से उसने उत्तर दिया-देवदत्त के घर में बसता हूँ। प्रश्नकर्ता ने पुनः पूछा-देवदत्त के घर में अनेक प्रकोष्ठ कोठे हैं, तो क्या आप उन सबमें रहते हैं ? उत्तर में उसने विशुद्धतर नेगमनय के अनुसार कहा--(नहीं, मैं उन सबमें तो नहीं रहता, किन्तु) गर्भगृह में रहता हूँ। इस प्रकार विशुद्ध नैगमनय के मत से वसते हुए को वसता हुआ माना जाता है / अर्थात् विशुद्ध नैगमनय के मतानुसार गर्भगृह में रहता हुअा ही 'वसति' इस रूप से व्यपदिष्ट होता है / व्यवहारनय का मंतव्य भी इसी प्रकार का है। संग्रहनय के मतानुसार शैया पर आरूढ़ हो तभी वह वसता हुअा कहा जा सकता है। ऋजुसूत्रनय के मत से जिन आकाशप्रदेशों में अवगाढ़-अवगाहनयुक्त विद्यमान है, उनमें ही वसता हुआ माना जाता है। तीनों शब्दनयों के अभिप्राय से प्रात्मभाव-स्वभाव में ही निवास होता है। इस प्रकार वसति के दृष्टान्त द्वारा नयों का स्वरूप जानना चाहिये। विवेचन-सूत्र में वसति-निवास के दृष्टान्त द्वारा नय-कथनशैली का निरूपण किया है। नैगमनय के अनेक भेद हैं, अत: उसके अनुसार दिये गये उत्तर उत्तरोत्तर विशुद्धतर नैगमनय को दष्टि से हैं। क्योंकि संकपमात्र ग्राहो होने से जब नैगमनय अपेक्षा दष्टि से विशेषोन्मुखी होता है तब चरम विशेष के पूर्व तक विशुद्ध से विशुद्धतर होता जाता है और वे सभी विशुद्धतर नैगमनय के विषय हैं / इसलिये पूर्व-पूर्वापेक्षया बिशुद्धतर नैगमनय के मत से बसते हुए को वसता हुआ माना जाता है / यदि वह अन्यत्र भी चला गया हो तब भी जहाँ निवास करेगा, वहीं उसको वसता हुआ माना जायेगा। __ इसी प्रकार का व्यवहारनय का भी मंतव्य है। क्योंकि जहाँ जिसका निवासस्थान है, वह उसी स्थान में वसता हा माना जाता है तथा जहाँ पर रहे, वही उसका निवासस्थान होता है। जैसे-पाटलिपुत्र का रहने वाला यदि कहीं अन्यत्र जाये तब भी कहा जाता है कि पाटलिपुत्रवासी अमुक व्यक्ति यहाँ पाया हग्रा है और पाटलिपुत्र में कहेंगे'--अब वह यहाँ नहीं है, अन्यत्र वस गया है। अर्थात विशुद्धतर नैगमनय और व्यवहारनय के मत से वसते हए को वसता हया' मानते हैं। इसी का संकेत करने के लिये-'एवमेव ववहारस्स वि' पद दिया है। संग्रहनय की मान्यता है कि 'वसति' शब्द का प्रयोग गर्भगृह आदि में रहने के अर्थ में नहीं हो सकता है। क्योंकि वसति का अर्थ निवास है और यह निवास रूप अर्थ संस्तारक पर आरूढ होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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