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________________ इस सन्दर्भ में यह समझना आवश्यक है कि प्रागम कहो, शास्त्र कहो या सूत्र कहो, सभी का एक ही प्रयोजन है। वे प्राणियों के अन्तर्मानस को विशुद्ध बनाते हैं। इसलिए प्राचार्य हरिभद्र ने कहा--जैसे जल वस्त्र की मलिनता का प्रक्षालन करके उसको उज्ज्वल बना देता है, वैसे ही शास्त्र भी मानव के अन्तःकरण में स्थित काम, क्रोध आदि कालुष्य का प्रक्षालन करके उसे पवित्र और निर्मल बना देता है। जिससे प्रात्मा का सम्यक बोध हो, प्रात्मा अहिंसा संयम और तप साधना के द्वारा पवित्रता की ओर गति करे, वह तत्त्वज्ञान शास्त्र है, अागम है। ___ मागम भारतीय साहित्य की मूल्यवान् निधि है। डॉ. हरमन जेकोबी, डॉ. शुकिंग प्रभृति अनेक पाश्चात्य मुर्धन्य मनीषियों ने जैन-पागम साहित्य का तलस्पर्शी अध्ययन कर इस सत्य-तथ्य को स्वीकार किया है कि विश्व को अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्तवाद के द्वारा सर्वधर्म-समन्वय का पुनीत पाठ पढ़ाने वाला यह सर्वश्रेष्ठतम साहित्य है। पागम साहित्य बहुत ही विराट और व्यापक है। समय-समय पर उसके वर्गीकरण किये गए हैं। प्रथम वर्गीकरण पूर्व और अंग के रूप में हया / द्वितीय वर्गीकरण अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के रूप में किया गया / तृतीय वर्गीकरण आर्य रक्षित ने अनुयोगों के आधार पर किया है। उन्होंने सम्पूर्ण अागम साहित्य को चार अनुयोगों में बांटा है। __अनुयोग शब्द पर चिन्तन करते हुए प्राचीन साहित्य में लिखा है--'अणुओयणमणुयोगो'---अनुयोजन को अनुयोग कहा है।' 'अनुयोजन' यहाँ पर जोड़ने व संयुक्त करने के अर्थ में व्यवहृत हुआ है। जिससे एक दूसरे को सम्बन्धित किया जा सके 1 इसी अर्थ को स्पष्ट करते हुए टीकाकार ने लिखा है-जो भगवत कथन से संयोजित करता है, वह 'अनुयोग' है। अभिधानराजेन्द्र कोष में लिखा है-लघु-सूत्र के साथ महान्-अर्थ का योग करना अनुयोग है / 12 अनुयोग एक चिन्तन अनुयोग शब्द 'अनु' और 'योग' के संयोग से निर्मित हुआ है / अनु उपसर्ग है। यह अनुकूल अर्थवाचक है। सूत्र के साथ अनुकूल, अनुरूप या सुसंगत संयोग अनुयोग है / बृहत्कल्प 3 में लिखा है कि अनु का अर्थ 6. मलिनस्य यथात्यन्तं जलं वस्त्रस्य शोधनम् / अन्तःकरणरत्नस्य, तथा शास्त्रं विदुबंधाः / / -योगबिन्दु, प्रकरण 219 7. समवायांग 14:136 8. अहवा तं समासो दुविहं पण्णतं तं जहा—अंगपविट्ठ अंगबाहिर च। --नन्दी, सूत्र 43 9. (क) अावश्यक नियुक्ति, 363-377 (ख) विशेषावश्यकभाष्य 2284-2295 (ग) दशकालिक नियुक्ति, 3 टी. 10. “युज्यते सबध्यते भगवदुक्तार्थेन सहेति योग:" 11. "अणुसूत्रं महानर्थस्ततो महतीर्थस्याणुना सूत्रेण योगो अनुयोगः" 12. देखो 'अणुप्रोग' शब्द, पृ. 340 13. अणुणा जोगो अणुजोमो अणु पच्छाभावो य थेवे य / जम्हा पच्छाऽभिहियं सुतं थोवं च तेणाणु / / ---बृहत्कल्प 1, गा. 190 [ 23 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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