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________________ अध्यात्म का प्रतिनिधि आगम जैन-आगम आध्यात्मिक जीवन का प्रतिनिधित्व करने वाले चिन्तन का अद्भुत व अनूठा संग्रह है, संकलन है। आगम शब्द बहुत ही पवित्र और व्यापक अर्थगरिमा को अपने-आप में समेटे हुए है। स्थूल दृष्टि से भले ही आगम और ग्रन्थ पर्यायवाची शब्द रहे हों पर दोनों में गहरा अन्तर है। प्रागम 'सत्यं शिवं सुन्दरं' की साक्षात् अनुभूति की अभिव्यक्ति है। वह अनन्त सत्य के द्रष्टा, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग तीर्थंकरों की विमल वाणी का संकलन-आकलन है। जबकि ग्रन्थों व पुस्तकों के लिए यह निश्चित नियम नहीं है। वह राग-द्वेष के दलदल में फंसे हुए विषय-कषाय की आग में झुलसते हुए, विकार और वासनात्रों से संत्रस्त व्यक्ति के विचारों का संग्रह भी हो सकता है। उसमें कमनीय कल्पना की ऊँची उड़ान भी हो सकती है पर वह केवल वाणी का विलास है, शब्दों का आडम्बर है, किन्तु उसमें अन्तरंग की गहराई नहीं है। __ जैन पागम में सत्य का साक्षात् दर्शन है, जो अखण्ड है, सम्पूर्ण व समग्र मानवचेतना को संस्पर्श करता है / सत्य के साथ शिव का मधुर सम्बन्ध होने से वह सुन्दर ही नहीं, अतिसुन्दर है। वह पार्षवाणी तीर्थकर या ही है। यास्क ने ऋषि की परिभाषा करते हए लिखा है-'जो मत्य का साक्षात द्रष्टा है, वह ऋषि हैं'।' प्रत्येक साधक ऋषि नहीं बन सकता, ऋषि वह है जिसने तीक्ष्ण प्रज्ञा, तर्कशुद्ध ज्ञान से सत्य की स्पष्ट अनुभूति की है। यही कारण है कि वेदों में ऋषि को मंत्रद्रष्टा कहा है। मंत्रद्रष्टा का अर्थ है---साक्षात् सत्यानुभूति पर प्राधूत शिवत्व का प्रतिपादन करने वाला सर्वथा मौलिक ज्ञान / वह आत्मा पर आई हुई विभाव परिणतियों के कालूष्य को दूर कर केवलज्ञान और केवलदर्शन से स्व-स्वरूप को पालोकित करता है / जो यथार्थ सत्य का परिज्ञान करा सकता है, प्रारमा का पूर्णतया परिवोध करा सके, जिससे आत्मा पर अनुशासन किया जा सके, वह पागम है / उसे दूसरे शब्दों में शास्त्र और सूत्र भी कह सकते हैं। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य में लिखा है--जिसके द्वारा यथार्थ सत्य रूप ज्ञेय का, आत्मा का परिबोध हो एवं प्रात्मा का अनुशासन किया जा सके, कह शास्त्र है। शास्त्र शब्द शास् धातु से निर्मित हुपा है, जिसका अर्थ है-शासन शिक्षण और उदबोधन / जिस तत्त्वज्ञान से आत्मा अनुशासित हो, उबुद्ध हो, वह शास्त्र है। जिससे आत्मा जागत होकर तप, क्षमा एवं अहिंसा की साधना में प्रवृत्त होती है, यह शास्त्र है / और जो केवल गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली और अभिन्न दशपूर्वी के द्वारा कहा गया है, वह सूत्र है। दूसरे शब्दों में जो ग्रन्थ प्रमाण से अल्प अर्थ की अपेक्षा महान, बत्तीस दोषों से रहित, लक्षण तथा आठ गुणों से सम्पन्न होता हुअा सारवान् अनुयोगों से सहित, व्याकरण विहित, निपातों से रहित, अनिंद्य और सर्वज्ञ कथित है, वह सूत्र है / 1. ऋषिदर्शनात् / —निरुक्त रा११ 2. साक्षात्कृतधर्माणो ऋषयो बभूवुः। -निरुक्त 1120 3. 'सासिज्जए तेण तहिं वा नेयमावावतो सत्थं' टीका-शासु अनुशिष्टौ शास्यते ज्ञेयमात्मा वाऽनेनास्मादस्मिन्निति वा शास्त्रम् / —विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1304 4. सुत्तं गणधरकधिदं तहेब' पत्तेयबुद्धकधिदं च / सुदकेवलिणा कधिदं अभिण्णदसब्धि कधिदं च / / -मूलाचार, 5180 5. अप्पम्मथ महत्थं बत्तीसा दोसविरहियं जं च / लक्खणजुत्तं सुत्तं अट्ठे हि गुणे हि उववेयं / अप्पक्खरमसंदिद्धं च सारवं विस्सग्रो मुहं / अत्योभमणवज्जं च सुतं सव्वण्णुभासियं // -भाव. निर्यक्ति, 880, 886 [22] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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