________________ [मनुबोगशालूम [132 उ.] आयुष्मन् ! पूर्वानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिये-१. धर्मास्तिकाय, 2. अधर्मास्तिकाय, 3. अाकाशास्तिकाय, 4. जीवास्तिकाय, 5. पुद्गलास्तिकाय, 6. अद्धाकाल / इस प्रकार अनुक्रम से निक्षेप करने को पूर्वानुपूर्वी कहते हैं। परचानुपूर्वो 133. से कि तं पच्छाणुपुग्यो ? पच्छाणुपुब्बी श्रद्धासमए 6 पोग्गलस्थिकाए 5 जीवस्थिकाए 4 भागासस्थिकाए 3 अधम्मस्थिकाए 2 धम्मस्थिकाए 1 / से तं पच्छाणुपुवी। [133 प्र.] भगवन् ! पश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [133 उ.] आयुष्मन् ! पश्चानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार है कि 6. अद्धासमय, 5. पुद्गलास्तिकाय, 4. जीवास्तिकाय, 3. आकाशास्तिकाय, 2. अधर्मास्तिकाय, और 1. धर्मास्तिकाय / इस प्रकार के विलोमक्रम से निक्षेपण करने को पश्चानुपूर्वी कहते हैं / अनानुपूर्वी 134. से कि तं अणाणएवी ? अणाणुपुवी एयाए चेव एगादियाए एगुत्तरियाए छगच्छगयाए सेडीए अण्णमण्णम्भासो दुरूवलो / से तं अणाणुपुवी। [134 प्र.] भगवन् ! अनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [134 उ.] प्रायुष्मन् ! एक से प्रारंभ कर एक-एक की वृद्धि करने पर छह पर्यन्त स्थापित श्रेणी के अंकों में परस्पर गुणाकार करने से जो राशि आये, उसमें से आदि और अंत के दो रूपों (भंगों) को कम करने पर अनानुपूर्वी बनती है / विवेचन–इन तीन सूत्रों (132, 133, 134) में औपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी के एक अपेक्षा से पूर्वानुपूर्वी आदि तीन भेदों का स्वरूप बतलाया है। धर्मास्तिकाय आदि के लक्षण प्रायः सुगम है कि गमन करते हुए जीवों और पुद्गलों की गति में सहायक द्रव्य को धर्मास्तिकाय और उनकी स्थिति में सहायक द्रव्य को अधर्मास्किाय, सभी द्रव्यों को अवस्थान-अवकाश देने में सहयोगी द्रव्य को प्राकाशास्तिकाय, चेतनापरिणाम युक्त द्रव्य को जीवास्तिकाय, पूरण-गलन स्वभाव वाले द्रव्य को पुद्गलास्तिकाय और पूर्वापर कोटि-विप्रमुक्त वर्तमान एक समय को अद्धासमय कहते हैं। षड्द्रव्यों की विशेषता-धर्मास्तिकाय आदि इन षड्द्रव्यों में से अद्धासमय एक समयात्मक होने से अस्ति रूप है किन्तु 'काय' नहीं है। शेष पांच द्रव्य प्रदेशों के संघात रूप होने से अस्तिकाय कहलाते हैं / जीवास्तिकाय सचेतन और शेष पांच अचेतन हैं / पुद्गलास्तिकाय रूपी-मूर्त और शेष पांच द्रव्य अमूर्तिक-अरूपी हैं / धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन अस्तिकाय द्रव्य द्रव्यापेक्षा एक-एक द्रव्य हैं। जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय अनन्तद्रव्य हैं तथा काल अप्रदेशीद्रव्य है / जीव, धर्म, अधर्म ये तीन असंख्यात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org