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________________ आनुपूर्वी निरूपण] [89 प्रदेशी हैं / प्राकाशास्तिकाय सामान्य से अनन्तप्रदेशी द्रव्य है / लोकाकाशरूप आकाश असंख्यातप्रदेशी और अलोकाकाश अनन्तप्रदेशी है / पुद्गलास्तिकाय के संख्यात, असंख्यात अनन्त प्रदेश होते हैं / अणुरूप पुद्गल तो एक प्रदेशी है और स्कन्धात्मक पुद्गल दो प्रदेशों के संघात से लेकर अनन्तानन्त प्रदेशों तक का समुदाय रूप हो सकता है। धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन अस्तिकाय नित्य, अवस्थित एवं निष्क्रिय हैं और जीव, पुद्गल सक्रिय अस्तिकाय द्रव्य हैं। षड् द्रव्यों का क्रमविन्यास-धर्म पद मांगलिक होने से सर्वप्रथम धर्मास्तिकाय का और तत्पश्चात् उसके प्रतिपक्षी अधर्मास्तिकाय का उपन्यास किया गया है। इनका आधार आकाश है, अत: इन दोनों के अनन्तर आकाशास्तिकाय का उल्लेख किया है, तत्पश्चात आकाश की तरह अमूर्तिक होने से जीवास्तिकाय का न्यास किया है। जीव के भोगोपभोग में आने वाला होने से जीव के अनन्तर पुद्गलास्तिकाय का विन्यास किया है तथा जीव और अजीब का पर्याय रूप होने से सबसे अंत में अद्धासमय का उपन्यास किया है। क्रमविन्यास की उक्त दृष्टि पूर्वानुपूवित्व में हेतु है। इसी क्रम को प्रतिलोम क्रम से सबसे अंतिम अद्धासमय से प्रारंभ करके क्रमानुसार उल्लेख किये जाने पर पश्चानुपूर्वी कहलाती है / किन्तु अनानुपूर्वी में विवक्षित पदों के उक्त दोनों क्रमों की उपेक्षा करके संभवित भंगों से इन पदों की विरचना की जाती है। उसमें सबसे पहले एक का अंक रखकर एक-एक की उत्तरोत्तर वृद्धि छह संख्या तक होती है, जैसे 1-2-3-4-5-6 / फिर इनमें परस्पर गुणा करने पर बनने वाली अन्योन्याभ्यस्त राशि (2x243444546-720) में प्रादि एवं अंत्य भंगों को है अनानुपूर्वी बनती है, क्योंकि प्राद्य भंग पूर्वानुपूर्वी का और अंतिम भंग पश्चानुपूर्वी का है। औपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी का दूसरा प्रकार 135. अहवा ओवणिहिया दव्याणुपुची तिविहा पत्नत्ता / तं जहा-पुवाणुपुत्वी 1 पच्छाणुपुची 2 प्रणाणुपुवी 3 / [135] अथवा औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी तीन प्रकार की कही है। यथा--१. पूर्वानुपूर्वी, 2. पश्चानुपूर्वी और 3, अनानुपूर्वी / विवेचन-पूर्व सुत्र में सामान्य से धर्मास्तिकाय आदि षड द्रव्यों की पूर्वानुपूर्वी आदि का कथन किया है। अब उसी को पुद्गलास्तिकाय पर घटित करने के लिये पुनः औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के तीन भेदों का यहाँ उल्लेख किया है। पूर्वानुपूर्वी आदि तीनों के लक्षण सामान्यतया पूर्ववत् हैं। लेकिन पुद्गलास्तिकाय की अपेक्षा क्रम से पुन: उनका निरूपण करते हैंपूर्वानुपूर्यो 136. से कि तं पुवाणुपुत्री ? पुवाणुपुब्वी परमाणुपोग्गले दुपएसिए तिपएसिए जाव दसपएसिए जाय संखिज्जपएसिए असंखिज्जपएसिए अणंतपएसिए / से तं पुवाणुपुग्यो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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