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________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] मनुष्यों के बद्ध-मुक्त पंच शरीर 423. [1] मणसाणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पन्नत्ता? गो० ! दुविहा पणत्ता। तं जहा-बल्लया य मुक्केल्लया य / तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते गं सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा, जहष्णपदे संखेज्जा संखेज्जाओ कोडीओ, एगुणतीसं ठाणाई तिजमलपयस्स उरि चउजमलपयस्स हेट्ठा, अहवणं छट्टो वागो पंचमवरगपडुप्पण्णो, अहवर्ण छण्णउतिछयणगदाइरासी, उक्कोसपदे असंखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्ततो उक्कोसपए स्वविखतेहि मणसेहि सेढी अवहीरति, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहि कालओ, खेत्तओ अंगुलपटमवागमूलं ततियवागमूलपडुप्पण्णं / मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया। [423-1 प्र.] भदन्त ! मनुष्यों के प्रौदारिकशरीर कितने कहे गये हैं ? [423-1 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं-बद्ध और मुक्त। उनमें से बद्ध तो स्यात् संख्यात और स्यात असंख्यात होते हैं / जघन्य पद में संख्यात कोटाकोटि होते हैं अर्थात् उनतीस अंकप्रमाण होते हैं। ये उनतीस अंक तीन यमल पद के ऊपर तथा चार यमल पद से नीचे है, अथवा पंचमवर्ग से गुणित छठे वर्गप्रमाण होते हैं, अथवा छियानवे (96) छेदनकदायी राशि जितनी संख्या प्रमाण हैं / उत्कृष्ट पद में वे शरीर असंख्यात हैं। जो कालत: असंख्यात उत्सपिगियोंअवसपिणियों द्वारा अपहत होते हैं और क्षेत्र की अपेक्षा एक रूप प्रक्षिप्त किये जाने पर मनुष्यों से श्रेणी अपहृत होती है / कालत: असत्यात उत्सपिणी-अवसर्पिणी कालों से अपहार होता है और श्रेत्रत: तीसरे मूलवर्ग से गुणित अंगुल के प्रथम वर्गमूल प्रमाण होते हैं। उनके मुक्त प्रौदारिकशरीर औधिक मुक्तयौदारिकशरीरों के समान जानना चाहिए। [2] मणसाणं भंते ! केवतिया वेउब्वियसरीरा पण्णत्ता ? गो० दुविहा पं० / तं०-बल्लया य मुक्केल्लया य / तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं संखेज्जा समए 2 अवहीरमाणा 2 संखेज्जेणं कालेणं अवहीरंति, नो चेव णं अवहिया सिया। मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया / [423-2 प्र. भगवन् ! मनुष्यों के वैक्रियशरीर कितने कहे हैं ? [423-2 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं-बद्ध और मुक्त / उनमें से बद्ध संख्यात हैं जो समय-समय में अपहृत किये जाने पर संख्यात काल में अपहृत होते हैं किन्तु अपहृत नहीं किये गये हैं / मुक्तवैक्रियशरीर मुक्त प्राधिक औदारिकशरीरों के बराबर जानना चाहिये। [3] मसाणं भंते ! केवइया आहारयसरीरा पन्नत्ता? गो० ! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य / तस्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते गं सिय अस्थि सिय नस्थि, जइ अस्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिष्णि वा उक्कोसेणं सहस्सपुहत्तं / मुक्केलया जहा ओहिया ओरालिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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