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________________ स्कन्ध निरूपण] उत्कीर्तन-सावद्ययोग की विरति से जो स्वयं सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए एवं दूसरों को भी आत्मशुद्धि के लिये इसी सावधयोग-प्रवृत्ति के त्याग का जिन्होंने उपदेश दिया ऐसे उपकारियों के गुणों की स्तुति करना उत्कीर्तन (चतुर्विशतिस्तव) अर्थाधिकार है। गुणवत्प्रतिपत्ति-सावद्ययोगविरति की साधना में तत्पर गुणवान् अर्थात् मूल एवं उत्तर गुणों के धारक संयमी निर्ग्रन्थ श्रमणवर्ग की प्रतिपत्ति-आदर-सम्मान करना गुणवत्प्रतिपत्ति (वंदना) अर्थाधिकार है। स्खलितनिन्दा-संयमसाधना करते हुए प्रमादवश होने वाली स्खलना--अतिचार--दोष की शुद्ध बुद्धि से संवेगभावनापूर्वक निन्दा-गर्दा करना स्खलित निन्दा (प्रतिक्रमण) अर्थाधिकार है। चिकित्सा-स्वीकृत साधना में कायोत्सर्ग करके शरीर पर ममत्व-रागभाव त्याग करके—अतिचारजन्य भावव्रण (घाव-दोष) का प्रायश्चित्त रूप औषधोपचार द्वारा निराकरण करना बणचिकित्सा (कायोत्सर्ग) अर्थाधिकार है / गुणधारणा–प्रायश्चित्त द्वारा दोषों का प्रमार्जन करके मूल और उत्तर गुणों को अतिचार रहित-निर्दोष धारण-पालन करना गुणधारणा (प्रत्याख्यान) अर्थाधिकार है / गाथोक्त 'च' और 'एव' शब्दों द्वारा यह स्पष्ट किया है कि मूल में आवश्यक के यही छह अर्थाधिकार हैं और इनसे सम्बन्धित प्राचार-विचार आदि सभी का इन्हीं में समावेश हो जाता है। 74. आवस्सगस्स एसो पिडत्थो वण्णितो समासेणं / एत्तो एक्केक्कं पुण अज्झयणं कित्तइस्सामि // 7 // तं जहा--सामाइयं 1 बउवीसत्थओ 2 वंदणं 3 पडिक्कमणं 4 काउस्सग्गो 5 पच्चक्खाणं 6 / [74] इस प्रकार से आवश्यकशास्त्र के समुदायार्थ का संक्षेप में कथन करके अब एक-एक अध्ययन का वर्णन करूंगा। उनके नाम यह हैं..--- 1. सामायिक 2. चतुर्विंशतिस्तव 3. वंदना 4. प्रतिक्रमण 5. कायोत्सर्ग और 6. प्रत्याख्यान / विवेचन यह प्रतिज्ञावाक्य है / पिंडार्थ के रूप में आवश्यकशास्त्र के जिस अर्थ का पूर्व में संकेत किया है उसी का विशद वर्णन करने के लिये यहाँ पृथक-पृथक अध्ययनों के नाम बताये हैं। इनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है सामायिक अध्ययन सर्वसावद्ययोग की विरति का प्रतिपादक है। चतुर्विशतिस्तव अध्ययन चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन-गुणानुवाद किये जाने से उत्कीर्तन ____वंदना अध्ययन मूलगुणों एवं उत्तरगुणों से संपन्न मुनियों का बहुमान करने रूप होने से गुणवत्प्रतिपत्ति प्राधिकार है / प्रतिक्रमण अध्ययन मूलगुणों और उत्तरगुणों से स्खलित होने पर लगे अतिचारों का निराकरण करने वाला होने से स्खलितनिन्दा अर्थाधिकार रूप है।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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