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________________ 48] [अनुयोगद्वारसूत्र (गाथार्थ) गण, काय, निकाय, स्कन्ध, वर्ग, राशि, पुंज, पिंड, निकर, संघात, आकुल और समूह, ये सभी भावस्कन्ध के पर्याय हैं / विवेचन-पर्यायवाची शब्दों की व्याख्या इस प्रकार है१. गण-मल्ल आदि गणों की तरह स्कन्ध अनेक परमाणुगों का संश्लिष्ट परिणाम होने से गण कहलाता है। 2. काय--स्कन्ध भी पुथ्वीकायादि की तरह होने से उसे काय कहते हैं। 3. निकाय-घट जीवनिकाय की तरह यह स्कन्ध भी निकाय रूप है / 4. स्कन्ध-द्विप्रदेशी, विप्रदेशी आदि रूप संश्लिष्ट परिणाम वाला होने से स्कन्ध कहलाता 5. वर्ग---गोवर्ग की तरह स्कन्ध वर्ग है। 6. राशि-चावल, गेहूं आदि धान्य राशिवत् होने से स्कन्ध का नाम राशि भी है। 7. पुज-एकत्रित किये गये धान्यपुंजवत् होने से इसे पंज कहते हैं। 8. पिंड-गुड़ आदि के पिंडवत् होने से पिंड है। 9. निकर-चांदी ग्रादि के समूह की तरह होने से यह निकर है। 10. संघात-महोत्सव आदि में एकत्रित जनसमुदाय की तरह होने से इसका नाम संघात है। 11. आकुल-आंगन आदि में एकत्रित (व्याप्त) जनसमूह जैसा होने से स्कन्ध को प्राकुल कहते हैं। 12. समूह-नगरादि के जनसमूह की तरह वह समूह है। इस प्रकार स्कन्धाधिकार का समग्र वर्णन जानना चाहिये / पावश्यक के अधिकार और अध्ययन 73. आवस्सगस्स णं इमे अत्थाहिगारा भवंति / तं जहा~ सावज्जजोगविरती 1 उक्कित्तण 2 गुणवओ य पडिवत्ती 3 // खलियस्स निदणा 4 वतिगिच्छ 5 गुणधारणा 6 चेव // 6 / / [73] प्रावश्यक के अधिकारों के नाम इस प्रकार हैं-- (गाथार्थ) 1. सावद्ययोगविरति, 2. उत्कीर्तन, 3. गुणवत्प्रतिपत्ति, 4. स्खलितनिन्दा, 5. व्रणचिकित्सा और 6 गुणधारणा। विवेचन यहाँ आवश्यक के छह अर्थाधिकारों के नाम बताये हैं। ये अर्थाधिकार इसलिये हैं कि प्रावश्यक की साधना, पाराधना द्वारा जो उपलब्धि होती है अथवा जो करणीय है उसका बोध इनके द्वारा होता है / स्पष्टीकरण इस प्रकार है ___सावद्ययोगविरति--हिंसा, असत्य अादि सावद्य योगों का त्याग करना। अर्थात् हिंसा आदि निन्दनीय कार्यों से विरत होना अथवा हिंसा आदि के कारण होने वाली मलिन मानसिक आदि वृत्तियों के प्रति उन्मुख न होना सावद्ययोगविरति (सामायिक) अर्थाधिकार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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