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________________ आवश्यक निरूपण] कुप्रावनिक भावावश्यक 27. से कि तं कुप्पावणियं भावावस्सयं ? कुप्पावयणियं भावावस्सयं जे इमे चरग-चीरिय-जाव पासंडत्था इज्जजलि-होम-जप्प-उंदुरुक्कनमोक्कारमाइयाई भावावस्सयाई करेंति / से तं कुप्पावणियं भावाबस्सयं / [27 प्र.] भगवन् ! कुप्रावनिक भावावश्यक का क्या स्वरूप है। [27 उ.| प्रायुप्मन् ! जो ये चरक, चीरिक यावत् पापण्डस्थ (उपयोगपूर्वक) इज्या यज्ञ, अंजलि, होम-हबन, जाप, उन्दुमक्क --धूपप्रक्षेप या बैल जैसी ध्वनि, वंदना आदि भावावश्यक करते हैं, वह कुप्रावनिक भाबावश्यक है। विवेचन--सूत्र में कुप्रावनिक भावावश्यक का स्वरूप बनलाया है। मिथ्याशास्त्रों को मानने वाले चरक, चीरिक आदि पाषंडी यथावसर जो भावसहित यज्ञ आदि क्रियायें करते हैं, वह कुप्रावचनिक भावावश्यक है। चरक ग्रादि द्वारा अवश्य ही निश्चित रूप से किये जाने से ये यज्ञ आदि अावश्यक रूप हैं नथा इनके करने वालों की उन क्रियाओं में उपयोग एवं श्रद्धा होने से भावरूपता है / तथा इन चरकादि का उन क्रियाओं संबन्धी उपयोग तो देशतः आगम रूप है और हाथ, सिर आदि द्वारा होने वाली प्रवृत्ति आगमरूप नहीं है / इसीलिए अागम के एक देश की अपेक्षा नोग्रागम हैं / कतिपय शब्दों के विशिष्ट अर्थ - इज्जंजलि--(इज्यांजलि) यज्ञ और तन्निमित्तिक जलधारा प्रक्षेप–छोड़ना / अथवा इज्या --पूजा गायत्री प्रादि के पाठपूर्वक ब्राह्मणों द्वारा की जाने वाली संध्योपासना और अंजलि-हाथ जोड़कर नमस्कार करना अथवा इज्या माता आदि गुरुजनों को अंजलि- नमस्कार करना / उन्दुरुक्क-उन्दु-मुख और रुक्क बैल जैसी ध्वनि करना, अर्थात् मुख से बैल जैसी गर्जना करना अथवा धूपप्रक्षेप करना। लोकोत्तरिक भावावश्यक 28. से कि तं लोगोत्तरियं भावावस्सयं ? लोगोत्तरियं भावावस्सयं जगणं इमं समणे वा समणी वा सावए वा साविया वा तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तयज्झवसिते तत्तिश्वज्यवसाणे तयट्टोवउत्ते तय पियकरणे तब्भावणाभाविते अण्णत्थ कत्थइ मणं अकरेमाणे उभओकालं आवस्सयं करेंति, से तं लोगोत्तरियं भावावस्सयं / से तं नोआगमतो भावावस्सयं / से तं भावावस्सयं / [28 प्र.] भगवन् ! लोकोत्तरिक भावावश्यक का क्या स्वरूप है ? [28 उ.] अायुष्मन् ! दत्तचित्त और मन की एकाग्रता के साथ, शुभ लेश्या एवं अध्यवसाय से सम्पन्न, यथाविधि क्रिया को करने के लिये तत्पर अध्यवसायों से सम्पन्न होकर, तीव्र प्रात्मोत्साहपूर्वक उसके (प्रावगायक के) अर्थ में उपयोगयुक्त होकर एवं उपयोगी करणों---शरीरादि को नियोजित कर, उसकी भावना से भावित होकर जो ये श्रमण, श्रमणी, श्रावक, श्राविकायें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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