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________________ 28 [अनुयोगद्वारसूत्र अन्यत्र मन (वचन-काय) को डोलायमान (संयोजित किये बिना उभयकाल (प्रात:-संध्या समय) अावश्यक-प्रतिक्रमणादि करते हैं, वह लोकोत्तरिक भावावश्यक है। इस प्रकार से यह नोग्रागम भावावश्यक का स्वरूप जानना चाहिये और इसके साथ ही भावावश्यक की वक्तव्यता पूर्ण हुई। विवेचन-सूत्र में लोकोत्तरिक भावावश्यक का स्वरूप बतलाया है। जो श्रमण आदि जिनप्रवचन में मन को केन्द्रित कर दोनों समय अावश्यक करते हैं, उसे लोकोत्तरिक भावावश्यक कहते हैं / __ प्रतिक्रमण आदि क्रियायें श्रमण आदि जनों को अवश्य करने योग्य होने से आवश्यक हैं। इनके करने वालों का उनमें उपयोग वर्तमान रहने से भावरूपता है। 'तयट्ठोव उत्त' और 'तयप्पियकरणे' इन दो पदों द्वारा यह स्पष्ट किया है कि आवश्यक क्रियायें स्वयं तो पागम रूप नहीं हैं अत: आवश्यकक्रियारूप एकदेश में तो अनागमता है किन्तु इनके ज्ञानरूप एकदेश में प्रागमता का सद्भाव होने से उभयरूपता के कारण इन्हें नोपागम लोकोत्तरिक भावावश्यक जानना चाहिये। प्रावश्यक के पर्यायवाची नाम 29. तस्स णं इमे एगट्टिया गाणाघोसा णाणावंजणा णामधेज्जा भवंति / तं जहा आवस्सयं 1 अवस्सकरणिज्जं 2 धुवगिरगहो 3 विसोही य 4 / / अज्झयणछक्कवग्गो 5 नाओ 6 आराहणा 7 मग्गो 8 // 2 // समण सावएण य अवस्सकायब्वयं हवति जम्हा / अंतो अहो-निसिस्स उ तम्हा आवस्सयं नाम // 3 // से तं आवस्तयं। [29] उस आवश्यक के नाना घोष (स्वर) और अनेक व्यंजन वाले एकार्थक अनेक नाम इस प्रकार हैं 1 आवश्यक, 2 अवश्यकरणीय, 3 ध्र वनिग्रह, 4 विशोधि, 5 अध्ययन-षट्कवर्ग, 6 न्याय, 7 श्राराधना और 8 मार्ग। श्रमणों और श्रावकों द्वारा दिन एवं रात्रि के अन्त में अवश्य करने योग्य होने के कारण इसका नाम आवश्यक है / यह आवश्यक का स्वरूप है। विवेचन--यहाँ आवश्यक के पर्यायवाची नाम बतलाये हैं। जो पृथक्-पृथक् उदात्तादि स्वर वाले और अनेक प्रकार के ककारादि व्यंजन वाले होने से किंचित् अर्थभेद रखते हुए भी एकार्थसमानार्थवाचक हैं 1. आवश्यक-अवश्य करने योग्य कार्य को आवश्यक कहते हैं / सामायिक आदि की साधना साधु आदि के द्वारा अवश्य निश्चित रूप से किये जाने योग्य होने से आवश्यक है। अथवा ज्ञानादि गुणों और मोक्ष की जिसके द्वारा पूर्णतया प्राप्ति होती है वह आवश्यक है- 'ज्ञानादिगुणा मोक्षो वा प्रासमन्ताद्वश्यः क्रियतेऽनेनेत्यावश्यकम् / ' अथवा इन्द्रिय, कषायादि भावशत्रुओं को सर्वत: वश में करने वालों के द्वारा जो किया जाता है, उसे आवश्यक कहते हैं—'पासमन्ताद् वश्या इन्द्रियकषायादिभावशत्रवो येषां, तैरेव क्रियते यत् तदावश्यकम् / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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