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________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [375 [464 प्र.] भगवन् ! किंचित्वैधयोपनीत का क्या स्वरूप है ? [464 उ.] आयुष्मन् / किसी धर्मविशेष की विलक्षणता प्रकट करने को किंचितवैधयोपनीत कहते हैं / वह इस प्रकार जैसा शबला गाय (चितकबरी गाय) का बछड़ा होता है वैसा बहुला गाय (एक रंग वाली गाय) का बछड़ा नहीं और जैसा बहुला गाय का बछड़ा वैसा शबला गाय का नहीं होता है / यह किंचितवैधयोपनीत का स्वरूप जानना चाहिये / / 465. से किं तं पायवेहम्मे ? पायवेहम्मे जहा वायसो न तहा पायसो, जहा पायसो न तहा वायसो / से तं पायवेहम्मे / [465 प्र.] भगवन् ! प्राय:वैधोपनीत किसे कहते हैं ? [465 उ.] आयुष्मन् ! अधिकांश रूप में अनेक अवयवगत विसदृशता प्रकट करने को प्राय:वैधोपनीत कहते हैं / यथा--जैसा वायस (कौमा) है वैसा पायस (खीर) नहीं होता और जैसा पायस होता है वैसा वायस नहीं / यही प्राय वैधोपनीत है। 466. से कि तं सव्ववेहम्मे ? सम्ववेहम्मे नस्थि, तहा वि तेणेव तस्स ओवम्म कीरइ, जहा–णीएणं णीयसरिसं कयं, दासेणं वाससरिसं कयं, काकेण काकसरिसं कयं, साणेणं साणसरिसं कयं, पाणणं पाणसरिसं कयं / से तं सन्ववेहम्मे / से तं वेहम्मोवणीए / से तं ओवम्मे। [466 प्र.] भगवन् ! सर्ववैधोपनीत का क्या स्वरूप है ? [466 उ.] आयुष्मन् ! जिसमें किसी भी प्रकार की सजातीयता न हो उसे सर्ववैधोपनीत कहते हैं / यद्यपि सर्ववैधर्म्य में उपमा नहीं होती है, तथापि उसी की उपमा उसी को दी जाती है, जैसे-नीच ने नीच के समान, दास ने दास के सदश, कौए ने कौए जैसा, श्वान (कुत्ता) ने श्वान जैसा और चांडाल ने चांडाल के सदृश किया / यही सर्ववैधर्योपनीत है। यही वैधोपनीत उपमानप्रमाण का प्राशय है। यह उपमान प्रमाण का स्वरूप जानना चाहिये। विवेचन-उक्त प्रश्नोत्तरों में उपमानप्रमाण के दूसरे भेद वैधोपनीत का विचार किया है। यह वैधोपनीत विलक्षणता का बोध कराता है और उसके भी तीन भेद हैं। किंचित वैधोपनीत में सामान्य धर्म की अपेक्षा भेद नहीं है / गोगत धर्मों की अपेक्षा दोनों में तुल्यता है, लेकिन माता पृथक्-पृथक् प्रकार की होने से वर्णभेद अवश्य है / इसी कारण किंचित् विलक्षणता प्रकट की गई है। / प्राय:वैधोपनीत में अनेक अवयवगत विसदृशता पर ध्यान रखा जाता है। वायस और पायस के नाम में दो अक्षरों की समानता है, किन्तु वायस चेतन है और पायस जड़ पदार्थ है / इसलिये दोनों में साम्य नहीं हो सकता है / इस विधर्मता के कारण प्राय:वैधयंता कही गई है। यद्यपि सर्ववैधोपनीत में भी सर्वसाधोपनीत की तरह उसकी उपमा उसी को दी जाती है, फिर भी उसे इसलिये पृथक् माना है कि प्रायः नीच भी जब गुरुघात आदि महापाप नहीं करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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