SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 426
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [अनुयोगद्वारसूत्र तो फिर अनीच करेगा ही कैसे? अतः सकल जगत् के विरुद्ध कर्म में प्रवृत्त होने की विवक्षा से सर्ववैधोपनीतता बताने के लिये सर्ववैधोपनीत उपमानप्रमाण का निर्देश किया है। अब क्रमप्राप्त आगमप्रमाण का विचार करते हैं। प्रागमप्रमाणनिरूपण 467. से कि तं आगमे? आगमे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-लोइए य लोगुरिए य / [467 प्र.] भगवन् ! अागमप्रमाण का स्वरूप क्या है ? [467 उ.] आयुष्मन् ! अागम दो प्रकार का है / यथा-१. लौकिक 2. लोकोत्तर / 468. से कि तं लोइए? लोइए जण्णं इमं अण्णाणिएहि मिच्छादिट्ठोएहि सच्छंदबुद्धिमतिविगप्पियं / तं जहा--भारहं रामायणं जाव चत्तारि य वेदा संगोवंगा / से तं लोइए आगमे / [468 प्र.] भगवन् ! लौकिक आगम किसे कहते हैं ? [468 उ.] आयुष्मन् ! जिसे अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जनों ने अपनी स्वच्छन्द बुद्धि और मति से रचा हो, उसे लौकिक आगम कहते हैं। यथा—महाभारत, रामायण यावत् सांगोपांग चार वेद / ये सब लौकिक पागम हैं / 469. से कि तं लोगुत्तरिए? लोगुत्तरिए जं इमं अरहंतेहि भगवंतेहि उप्पण्णणाण-दसणधरेहि तीय-पच्चुप्पण्ण-मणागयजाणएहि तेलोक्कवहिय-महिय-पूइएहि सवण्णूहि सम्बदरिसीहि पणीयं दुवालसंग गणिपिडगं / तं जहा-आयारो जाव दिहिवाओ / से तं लोगुत्तरिए आगमे / [469 प्र.] भगवन् ! लोकोत्तर आगम का क्या स्वरूप है ? [469 उ.] आयुष्मन् ! उत्पन्नज्ञान-दर्शन के धारक, अतीत, प्रत्युत्पन्न (वर्तमान) और अनागत के ज्ञाता त्रिलोकवर्ती जीवों द्वारा सहर्ष वंदित, पूजित सर्वज्ञ, सर्वदर्शी अरिहंत भगवन्तों द्वारा प्रणीत आचारांग यावत् दृष्टिवाद पर्यन्त द्वादशांग रूप गणिपिटक लोकोत्तरिक आगम हैं। 470. अहवा आगमे तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-सुत्तागमे य अस्थागमे य तदुभयागमे य / अहवा आगमे तिविहे पण्णत्ते / तं०–अत्तागमे अणंतरागमे परंपरागमे य / तित्थगराणं अत्थस्स अत्तागमे, गणहराणं सुत्तस्स अत्तागमे अस्थस्स अणंतरागमे, गणहरसीसाणं सुत्तस्स अणंतरागमे अत्थस्स परंपरागमे, तेण परं सुत्तस्स वि अत्थस्स वि णो अत्तागमे जो अणंतरागमे परंपरागमे / से तं लोगुत्तरिए / से तं आगमे / से तं णाणगुणप्पमाणे / [470] अथवा ( प्रकारान्तर से लोकोतरिक ) आगम तीन प्रकार का कहा है / जैसे१. सूत्रागम, 2. अर्थागम और 3. तदुभयागम / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy