________________ 374] [अनुयोगद्वारसूत्र में शुक्लता की अपेक्षा समानता है। अन्यथा उन सबमें महान् अंतर स्पष्ट है / इसीलिये ऐसी उपमा किंचित्साधोपनीत कहलाती है। किंचित्साधम्र्योपनीत से प्रायःसाधोपनीत उपमा का क्षेत्र व्यापक है। इसमें उपमेय और उपमान पदार्थगत समानता अधिक होती है और असमानता अल्प-नगण्य जैसी। जिससे श्रोता उपमेय वस्तु को तत्काल जान लेता है। किंचित्साधोपनीत वस्तु का ज्ञान करना तत्काल सम्भव नहीं है। इसको समझने के लिये अधिक स्पष्टीकरण अपेक्षित होता है / यही दोनों में अन्तर है। प्राय साधोपनीत के लिये गो और गवय का उदाहरण दिया है। इसमें गो सास्नादि युक्त है और गवय (नीलगाय) वर्तुलाकार कंठ वाला है। लेकिन खुर, ककुद, सींग आदि में समानता है। इसीलिये यह प्रायःसाधोपनीत का उदाहरण है। सर्वसाधोपनीत में सर्व प्रकारों से समानता बताने के लिये उसी से उसको उपमित किया जाता है / अतएव कदाचित् यह कहा जाये कि उपमा तो दो पृथक् पदार्थों में दी जाती है। सर्व प्रकारों से समानता तो किसी में भी किसी के साथ घटित नहीं होती है। यदि इस प्रकार से समानता घटित होने लगे तो फिर दोनों में एकरूपता होने से उपमान का यह तीसरा भेद नहीं बन सकेगा। तो इसका उत्तर यह है: यह सत्य है कि दो वस्तुओं में सर्वप्रकार से समानता नहीं मिलती है, फिर भी सर्वप्रकार से समानता का तात्पर्य यह है कि उस जैसा कार्य अन्य कोई नहीं कर सकता है। इसीलिये अरिहंत आदि के उदाहरण दिये हैं कि तीर्थ का स्थापन करना इत्यादि कार्य अरिहंत करते हैं, उन्हें अन्य कोई नहीं करता है / लोकव्यवहार में भी देखा जाता है कि किसी के किये हुए अद्भुत कार्य के लिये कहा जाता है- इस कार्य को प्राप ही कर सकते हैं अथवा आपके तुल्य जो होगा, वही कर सकता है, अन्य नहीं। इसी दृष्टि से सर्वसाधोपनीत को उपमानप्रमाण का पृथक् भेद माना है।' अब उपमानप्रमाण के दूसरे भेद वैधोपनीत का कथन करते हैंवैधोपनीत उपमानप्रमाण 463. से कि तं वेहम्मोवणीए ? वेहम्मोवणीए तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-किचिवेहम्मे पायवेहम्मे सव्ववेहम्मे / [463 प्र.] भगवन् ! वैधोपनीत का तात्पर्य क्या है ? [463 उ.] आयुष्मन् ! वैधोपनीत के तीन प्रकार हैं, यथा--१. किंचित्वैधोपनीत, 2. प्राय:वैधोपनीत और 3. सर्ववैधयोपनीत / 464. से कि तं किचिवेहम्मे ? किचिवेहम्मे जहा सामलेरो न तहा बाहुलेरो, जहा बाहुलेरो न तहा सामलेरो / से तं किचिवेहम्मे। 1. सर्वसाधोपनीत के लिये यह संस्कृत लोकोक्ति प्रसिद्ध है-- गगनं गगनाकारं सागरः सागरोपमः / रामरावणयोयुद्ध रामरावणोरिव / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org