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________________ [अनुयोगद्वारमूत्र इस प्रकार से अवमानप्रमाण का स्वरूप जानना चाहिये। विवेचन—यहाँ अवमानप्रमाण की व्याख्या की गई है। वित रहने के लिये मनुष्य गेहं ग्रादि धान्य, जल आदि तरल पदार्य और स्वास्थ्यरक्षा के लिये औषध आदि वस्तुएँ उपयोग में लाता है / उनके परिमाण को जानने के लिये तो धान्यमान आदि प्रमाण काम में लाये जाते हैं। किन्तु सुरक्षा के लिये वह मकान यादि का, नगर की रक्षा के लिये खात, परिखा आदि का निर्माण करता है। उनकी लंबाई, चौड़ाई आदि का परिज्ञान करने के लिये प्रवमानप्रमाण का उपयोग किया जाता है। अागे कहे जाने वाले क्षेत्रप्रमाण के द्वारा भी क्षेत्र की लंबाई-चौडाई का नाप किया जाता है और इस अवमानप्रमाण का भी यही प्रयोजन है। लेकिन दोनों में यह अंतर है कि क्षेत्र प्रमाण के द्वारा शाश्वत, अकृत्रिम, प्राकृतिक क्षेत्र का और अत्रमानप्रमाण द्वारा मनुष्य द्वारा निर्मित घर, खेत आदि की सीमा का निर्धारण किया जाता है। यहाँ अवमान शब्द कर्म और करण इन दोनों रूपों में व्यवहृत हुआ है / जब 'अवमीयते यत् तत् अवमानम्' इस प्रकार की कर्मसाधन रूप व्युत्पत्ति करते हैं तब उसके वाच्य गृहभुमि, खेत आदि और 'अवमीयते अनेन इति अवमानम्' ऐसी करणासाधन व्युत्पत्ति करने पर नापने के माध्यम दंड आदि अवमान शब्द के वाच्य होते हैं। यद्यपि दंड, धनुष आदि मूसल पर्यन्त नामों का प्रमाण चार हाथ है, फिर भी सूत्र में इनका पृथक-पृथक निर्देश कारणविशेष से किया है। वास्तु गृहभूमि को नागने में हाथ काम में लाया जाता है, जैसे यह धर इतने हाथ लंबा-चौड़ा है / क्षेत्र -खेत दंड (चार हाथ लंबे बांस) द्वारा नापा जाता है / मार्ग को नापने के लिये धनुष प्रमाणभूत गिना जाता है। अर्थात मार्ग की लंबाई अादि के प्रमाण का बोध धनुष से होता है / खात, कुत्रा आदि की गहराई का प्रमाण चार हाथ जितनी लंबी नालिका ( लाठी ) से जाना जाता है। उक्त वस्तुओं को नापने के लिये लोक में इसी प्रकार की रूढ़ि है। इसीलिये वास्तु-गृहभूमि आदि नाये जाने वाले पदार्थों में भेद होने से उनके नाम के लिये दंड ग्रादि का पृथक्-पृथक निर्देश किया गया है। तिलोयपणत्ति ( 11302-106 ) में भी क्षेत्र नापने के प्रमाणों का इसी प्रकार से कथन किया गया है / किन्तु इतना विशेष है कि वहाँ 'किकु' नाम अधिक है तथा उसका प्रमाण दो हाथ का बताया गया है / तत्रस्थ वर्णन का क्रम इस प्रकार है-छह अंगुल का एक पाद, दो पाद की एक बितस्ति (वालिश्त), दो वितस्ति का एक हाथ, दो हाथ का एक किक, दो किष्कु का एक दंडयुग-धनुष, मूसल-नाली, दो हजार धनुष का एक कोस पीर चार कोस का एक योजन होता है। इस प्रकार अन्न, वस्त्र, ग्रावास आदि के परिमाण के बोधक प्रमाणों का वर्णन करने के पश्चात् अब अर्थशास्त्र से सम्बन्धित प्रमाण का निरूपण किया जाता है। गणिमप्रमाण 326. से कि तं गणमे? गणिमे जण्णं गणिज्जति / तं जहा-एक्को दसगं सतं सहस्सं दससहस्साई सतसहस्सं ससतसहस्साई कोडी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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