________________ 416 [अनुयोगद्वारसूत्र किसी गिरते हुए पुराने–जीर्ण पीले पत्ते ने नवोद्गत किसलयों-कोंपलों से कहा-इस समय जैसे तुम हो, हम भी पहले वैसे ही थे तथा इस समय जैसे हम हो रहे हैं, वैसे ही आगे चलकर तुम भी हो जाओगे। यहाँ जो जीर्ण पत्तों और किसलयों के वार्तालाप का उल्लेख किया गया है, वह न तो कभी हुना है, न होता है और न होगा, किन्तु भव्य जनों के प्रतिबोध के लिये उपमा दी गई है / 120, 121, 122 / विवेचन--प्रस्तुत दृष्टान्त में 'जह तुम्भे तह अम्हे' इस पद में उपमाभूत किसलय अवस्था तत्काल विद्यमान होने से सद्रूप है और उपमेयभूत तथाविध जीर्ण आदि रूप पत्रावस्था अविद्यमान होने से असद्रूप है तथा 'तुम्हे वि य होहिहा जहा अम्हे' यहाँ जीर्ण-शीर्ण आदि पत्रावस्था तत्कालवर्ती होने से सद्रूप है और किसलयों की तथाविध अवस्था भविष्यकालीन होने के कारण वर्तमान में अविद्यमान होने से असद्रूप है / इस प्रकार असत् सत् से उपमित हुआ है। सूत्रोक्त तीन गाथायें भव्य जनों के प्रतिबोधनार्थ हैं, यथा-संसार की सभी वस्तुएं अनित्य होने से कभी भी एक जैसी नहीं रहती हैं। अतः स्वाभ्युदय में अहंकार और पर का अनादर नहीं करना चाहिये। असद्-असद्रूप प्रौपम्यसंख्या [5] असंतयं असंतएण उवमिज्जति–जहा खरविसाणं तहा ससविसाणं / से तं ओवम्मसंखा / [492-5] अविद्यमान पदार्थ को अविद्यमान पदार्थ से उपमित करना असद्-असद्रूप प्रौपम्यसंख्या है / जैसा-खर (गधा) विषाण (सींग) है वैसा ही शश (खरगोश) विषाण है और जैसा शशविषाण है वैसा ही खरविषाण है। इस प्रकार से औपम्यसंख्या का निरूपण जानना चाहिये / विवेचन--इस विकल्प में उपमानभूत खरविषाण का त्रिकाल में भी सत्त्व न होने से वे असद्रूप है, वैसे ही उपमेयभूत शशविषाण भी असद्-रूप हैं। इस प्रकार असत् से असत् उपमित हुआ है। परिमाणसंख्यानिरूपमा 493. से कि तं परिमाणसंखा ? परिमाणसंखा दुविहा पग्णत्ता। तं०-कालियसुयपरिमाणसंखा दिट्टिवायसुयपरिमाणसंखा य / [493 प्र.] भगवन् ! परिमाणसंख्या का क्या स्वरूप है ? [493 उ. आयुष्मन् ! परिमाणसंख्या दो प्रकार की कही गई है / जैसे-१. कालिकश्रुतपरिमाणसंख्या और 2. दृष्टिवादश्रुतपरिमाणसंख्या। विवेचन प्रस्तुत सूत्र परिमाणसंख्या के निरूपण की भूमिका है। जिसकी गणना की जाये उसे संख्या और जिसमें पर्यव आदि के परिमाण का विचार किया जाये उसे परिमाणसंख्या कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org