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________________ 278 [अनुयोगद्वारसूत्र भवधारणीय एवं उत्तरवैक्रिय अवगाहना का प्रमाण जघन्य तथा उत्कृष्ट इन दोनों अपेक्षाओं से बतलाया है। - इन सभी कल्पवासी देवों को उत्तरवैक्रिय जघन्य और उत्कृष्ट शरीरावगाहना समान अर्थात् जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट एक लाख योजन की है। यह उत्तरवैक्रिय उत्कृष्ट शरीरावगाहना का प्रमाण उनकी योग्यता--क्षमता की अपेक्षा से ही जानना चाहिए। लेकिन भवधारणीय उत्कृष्ट अवगाहना में अन्तर है / इसका कारण यह है कि ऊपर-ऊपर के प्रत्येक कल्प में वैमानिक देवों की आयुस्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति-कांति, लेश्याप्रों की विशुद्धि, विषयों को ग्रहण करने की ऐन्द्रियक शक्ति एवं अवधिज्ञान की विशदता अधिक है।' किन्तु एक देश से दूसरे देश में गमन करने रूप गति, शरीरावगाहना, परिग्रह-ममत्वभाव और अभिमान भावना उत्तरोत्तर ऊपर-ऊपर के देवों में होन-हीन होती है / 2 इसी कारण सौधर्मकल्प में देवों की शरीरावगाहना सात रत्नि प्रमाण है तो वह बारहवें अच्युतकल्प में जाकर तीन रत्नि प्रमाण रह जाती है / इसी प्रकार उत्तरोत्तर शरीरावगाहना की हीनता का क्रम |वेयक से लेकर सर्वार्थसिद्ध विमान तक के कल्पातीत देवों के लिये भी जानना चाहिये। 'जहा सोहम्मयदेवाणं पुच्छा तहा सेसकप्पाणं देवाणं पुच्छा भाणियव्वा जाव अच्चुयकप्पो' इस वाक्य में इस प्रकार के प्राश्निक पदों का समावेश किया गया है-'सणकुमारे कप्पे देवाणं भंते! केमहालिया सरीरोगाणा पग्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य / तत्थ णं जा सा...।' इसी प्रकार से शेष कल्पों के नामों का उल्लेख करके उनउनके प्रश्न की उद्भावना कर लेना चाहिये। इस प्रकार से कल्पोपपन्न वैमानिक देवों की शरीरावगाहना का प्रमाण बतलाने के अनन्तर "अब कल्पातीत वैमानिकों की शरीरावगाहना का निरूपण करते हैं। [4] गेवेज्जयदेवाणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नता? गो० ! गेवेज्जगदेवाणं एगे भवधारणिज्जए सरीरए, से जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं दो रयणीओ। [355-4 प्र.] भगवन् ! अवेयकदेवों की शरीरावगाहना कितनी है ? 355-4 उ.] गौतम ! |वेयकदेवों के एकमात्र भवधारणीय शरीर ही होता है / उस शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट अवगाहना दो हाथ की होती है। [5] अणुत्तरोववाइयदेवाणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता ? गोयमा ! अणुत्तरोक्वाइयदेवाणं एगे भवधारणिज्जए सरीरए, से जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं एक्का रयणी। 1. स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्या विशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः / 2. गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः / -तत्त्वार्थसूत्र 4 / 20,21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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