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________________ 120] [अनुयोगद्वारसूत्र विवक्षा की वजह से प्रत्येक द्रव्य असंख्यात हैं / तात्पर्य यह है कि लोक असंख्यातप्रदेशी है, अतः लोक में एक समय की स्थिति वाले और दो समय की स्थिति बाले द्रव्यों के रहने के स्थान असंख्यात हैं। अतः उन असंख्यात अाधार रूप स्थानों में ये द्रव्य रहते हैं। इसलिये एक समय की और दो समय की स्थिति वाले प्रत्येक द्रव्य में असंख्यातता सिद्ध है। (ङ 3, 4) क्षेत्र और स्पर्शना प्ररूपणा 193. णेगम-ववहाराणं आणुपुस्विदव्वाइं लोगस्स कि संखेज्जइभागे होज्जा ? पुच्छा। एगदव्वं पडुच्च लोगस्स संखेज्जतिभागे वा होज्जा जाव असंखेज्जेसु वा भागेसु होज्जा देसूणे वा लोए होज्जा, नाणादव्वाई पडुच्च नियमा-सवलोए होज्जा / एवं अणाणुपुग्वि-अवत्तव्यदवाणि भाणियव्वाणि जहा णेगम-बवहाराणं खेत्ताणुपुवीए। [193 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनेक आनुपूर्वी द्रव्य क्या लोक के संख्यात भाग में रहते हैं ? इत्यादि प्रश्न है / [ 193 उ.] अायुष्मन् ! एक द्रव्य की अपेक्षा (समस्त प्रानुपूर्वीद्रव्य) लोक के संख्यात भाग में रहते हैं यावत् असंख्यात भागों रहते हैं अथवा देशोन लोक में रहते हैं। किन्तु अनेक द्रव्यों की अपेक्षा नियमतः सर्वलोक में रहते हैं / समस्त अनानुपूर्वी द्रव्यों और अवक्तव्य द्रव्यों की वक्तव्यता भी नैगम-व्यवहारनयसम्मत क्षेत्रानुपूर्वी के समान है। 194. एवं फुसणा कालाणुपुवीए वि तहा चेव भाणितम्वा / [194] इस कालानुपूर्वी में स्पर्शनाद्वार का कथन तथैव (क्षेत्रानुपूर्वी जैसा ही) जानना चाहिये। विवेचन- इन दो सूत्रों में अनुगम के क्षेत्र और स्पर्शना इन दो द्वारों का निरूपण किया है। क्षेत्रद्वार में प्रानुपूर्वी-त्रयादि समय की स्थिति वाले द्रव्य का लोक के संख्यात प्रादि भागों में रहना उन-उन भागों में उनका अवगाह सम्भवित होने की अपेक्षा जानना चाहिये तथा तीन आदि समय की स्थिति वाले सूक्ष्म परिणामयुक्त स्कन्ध के देशोन लोक में अवगाहित होने पर एक प्रानुपूर्वी द्रव्य देशोन लोकवर्ती होता है। अानुपूर्वी द्रव्य सर्वलोकव्यापी इसलिये नहीं कि सर्वलोकव्यापी तो अचित्त महास्कन्ध ही होता है और वह अचित्त महास्कन्ध एक समय तक ही सर्वलोकव्यापी रहता है। तदनन्तर उसका' संकोच-उपसंहार हो जाता है। उसे काल की अपेक्षा ग्रानुपूर्वी द्रव्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि प्रानुपूर्वी द्रव्य कम से कम तीन समय की स्थिति वाला ही होता है। यदि अचित्त महास्कन्ध को सर्वलोकव्यापी माना जाये तो फिर अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्य द्रव्यों के ठहरने का स्थान न होने के कारण उनका प्रभाव मानना पड़ेगा। लेकिन देशोन लोक में उसकी स्थिति मानने पर लोक में कम से कम एक प्रदेश ऐसा भी रहेगा जिसमें अनानुपूर्वी और अबक्तव्यक द्रव्य के ठहरने के लिये स्थान मिल जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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