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________________ स्कन्ध निरूपण [45 65] अथवा ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरन्यतिरिक्तद्रव्यस्कन्ध्र के तीन प्रकार हैं। जैसे-१ कृत्स्नस्कन्ध, 2 अकृत्स्नस्कन्ध, 3 अनेकद्रव्यस्कन्ध / विवेचन--यहाँ उभयव्यतिरिक्त द्रव्यस्कन्ध के प्रकारान्तर से कृत्स्न (संपूर्ण), अकृत्स्न (अपूर्ण) और अनेक (एक से अधिक द्रव्यों का समुदाय), इन तीन भेदों के नाम बताये हैं / अब क्रम से उनका स्पष्टीकरण करते हैं। कृत्स्नस्कन्ध 66. से कि तं कसिणखंधे ? कसिणखंधे से चेव हयक्खंधे गयक्खंधे जाव उसभखंधे / से तं कसिणखंधे। [66 प्र.] भगवन् ! कृत्स्नस्कन्ध का क्या स्वरूप है ? [66 उ. आयुष्मन ! हयस्कन्ध, गजस्कन्ध्र यावत् वृषभस्कन्ध जो पूर्व में कहे, वही कृत्स्नस्कन्ध हैं / यही कृत्स्नस्कन्ध का स्वरूप है। विवेचन--यहाँ कृत्स्नस्कन्ध का स्वरूप बतलाया गया है। यद्यपि इस कृत्स्नस्कन्ध के उदाहरणों में भी सचित्तद्रव्यस्कन्ध के उदाहरण हयस्कन्ध आदि का उल्लेख किया है, लेकिन दोनों में अन्तर यह है कि सचित्तद्रव्यस्कन्ध में तो य (अश्व) आदि जीवों की विवक्षा की है, उनके शरीर की नहीं और कृत्स्नस्कन्ध के प्रसंग में जीव और जीवाधिष्ठित शरीरावयव इन दोनों के समुदाय की विवक्षा है। इस तरह अभिधेय-भिन्नता से सचित्तद्रव्यस्कन्ध और कृत्स्नस्कन्ध में भेद (अन्तर) है / अर्थात् कृत्स्नस्कन्ध में जीव और जीवाधिष्ठित शरीरावयवों के समुदाय को और सचित्तद्रव्यस्कन्ध में मात्र असंख्यातप्रदेशी जीव को ग्रहण किया है / इस प्रकार उदाहरण एक होने पर भी दोनों में अन्तर है। यस्कन्ध, गजस्कन्ध्र प्रादि के आकार-प्रकार में जो छोटापन, बड़ापन है, वह पौद्गलिक प्रदेशों की अपेक्षा है, लेकिन प्रत्येक जीव असंख्यातप्रदेशी है और उस शरीर में सभी प्रदेशों के सर्वात्मना तदाकार रूप से रहने के कारण असंख्यात प्रदेश सर्वत्र तुल्य हैं, हीनाधिकता नहीं है। पुद्गल प्रदेशों में वृद्धि हानि होने पर भी प्रात्मप्रदेशों में वृद्धि-हानि नहीं होती है / अकृत्स्नस्कन्ध 67. से कितं अकसिणखंधे ? अकसिणखंधे से चेक दुपएसियादी खंधे जाव अणंतपदेसिए खंधे / से तं अकसिणखंधे / [67 प्र.] भगवन् ! अकृत्स्नस्कन्ध का क्या स्वरूप है ? [67 उ. प्रायुष्मन् ! अकृत्स्नस्कन्ध पूर्व में कहे गये द्विप्रदेशिक स्कन्ध आदि यावत् अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध हैं / इस प्रकार अकृत्स्नस्कन्ध का स्वरूप जानना चाहिये। विवेचन--सूत्र में अकृत्स्नस्कन्ध की व्याख्या की है / अकृत्स्न यानि अपरिपूर्ण / अतएव जिस स्कन्ध से अन्य कोई दूसरा बड़ा स्कन्ध होता है, वह अपरिपूर्ण होने के कारण अकृत्स्नस्कन्ध है। द्विप्रदेशिक प्रादि स्कन्ध अपूर्ण हैं और इनमें अपरिपूर्णता इस प्रकार है कि द्विप्रदेशिक स्कन्ध त्रिप्रदेशिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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