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________________ अनुयोगद्वारसूत्र स्कन्ध से न्यून होने के कारण अपरिपूर्ण है। इसी तरह उत्तरोत्तर की अपेक्षा पुर्व-पूर्व का स्कन्ध अकृत्स्नस्कन्ध जानना चाहिये। यह अकृत्स्नता कृत्स्नता प्राप्त होने के पूर्व तक होती है। पूर्व में द्विप्रदेशिक आदि से लेकर अनन्त प्रदेश बाले स्कन्ध सामान्य रूप से अचित्त कहे हैं। परन्तु अकृत्स्नद्रव्यस्कन्ध के प्रकरण में सर्वोत्कृष्ट स्कन्ध से नीचे के स्कन्ध ही उत्तरोत्तर की अपेक्षा अकृत्स्नस्कन्ध रूप में ग्रहण किये हैं। यही इन दोनों में भेद है। अनेकद्रव्यस्कन्ध 68. से कि तं अगदवियखंधे ? अगदवियखंधे तस्सेव देसे अवचिते तस्सेव देसे उचिए / से तं अगदवियखंधे / से तं जाणगसरीरभवियसरीरवतिरित्ते दब्वखंधे / से तं नोआगमतो दव्वखंधे / से तं दव्वखंधे / [68 प्र.] 'भगवन् ! अनेकद्रव्यस्कन्ध का क्या स्वरूप है ? |68 उ.] आयुष्मन् ! एकदेश अपचित और एकदेश उपचित भाग मिलकर उनका जो समुदाय बनता है, वह अनेकद्रव्यस्कन्ध है। इस प्रकार से ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यस्कन्ध का निरूपण समाप्त हया और इसकी समाप्ति के साथ नोग्रागम द्रव्यस्कन्ध का और माथ ही द्रव्यस्कन्ध का वर्णन भी पूर्ण हुआ जानना चाहिये। विवेचन—सूत्रार्थ स्पष्ट है। इसमें विशेष कथनीय यह है कि एक देश अपचित भाग अर्थात् जीवप्रदेशों से रहित (अचेतन नख केशादि रूप भाग एवं एकदेश उपचित--जी पीठ, उदर आदि भाग के संयोग से एक विशिष्ट आकार वाला जो देह रूप समुदाय बनता है, वह अनेकद्रव्यस्कन्ध है / जैसे हयस्कन्ध, गजस्कन्ध आदि / यद्यपि यह अनेकद्रव्यस्कन्ध भी कृत्स्नस्कन्ध की तरह हयादि स्कन्ध रूप से प्रतीत होता है, फिर भी दोनों में यह अंतर है कि कृत्स्नस्कन्ध में तो मात्र जीव के प्रदेशों से व्याप्त शरीरावयव रूप देश को हो विवक्षित किया है, जीव-प्रदेशों से अव्याप्त नखादि प्रदेशों को नहीं, किन्तु अनेकद्रव्यस्कन्ध में पूर्वोक्त के साथ नखादि रूप अचेतन देश भी विवक्षित हैं। मिश्रद्रव्यस्कन्ध से भी यह अनेकद्रव्यस्कन्ध भिन्न है। क्योंकि मिश्रद्रव्यस्कन्ध में तो पृथकपथक रूप से अवस्थित हस्ती, तलवार आदि को मिश्रस्कन्ध रूप से कहा है, परन्तु इस अनेकद्रव्यस्कन्ध में विशिष्ट परिणाम रूप से परिणत हुए सचेतन-अचेतन द्रव्यों के एक समुदाय को अनेक द्रव्यस्कन्ध कहा है। भावस्कन्ध निरूपण 69. से कि तं भावखंधे ? भावखंधे दुबिहे पण्णत्ते / तं जहा--आगमतो य 1 नोआगमतो य 2 / [69 प्र.] भगवन् ! भावस्कन्ध का क्या स्वरूप है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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