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________________ 466] [अनुयोगदारसूत्र . __ लक्षण युक्त सूत्र इन बत्तीस दोषों से रहित होने के साथ ही पाठ गुणों से युक्त भी होता है। वे आठ गुण ये हैं निहोस सारवंतं च हेउजुत्तमलकियं / उवणीयं सोवयारं च मियं महुरमेव च / / 1. निर्दोष सर्व दोषों से रहित / 2. सारवान् सारयुक्त होना / 3. हेतुयुक्त-अन्वय और व्यतिरेक हेतुओं से युक्त / / 4. अलंकारयुक्त–उपमा, उत्प्रेक्षा ग्रादि अलंकारों से विभूषित / 5. उपनीत-उपनय से युक्त अर्थात् दृष्टान्त को दार्टान्तिक में घटित करना / 6. सोपचार --ग्रामीण भाषाओं से रहित और संस्कृतादि साहित्यिक भाषाओं से युक्त / 7. मित-अक्षरादि के प्रमाण से नियत / / 8. मधुर-सुनने में मनोहर ऐसे मधुर वर्गों से युक्त / अनधिगतार्थ की बोधविधि--सूत्र के समुच्चारित होने पर भी अनधिगत रहे अर्थाधिकारों के परिज्ञान कराने की विधि इस प्रकार है 1. संहिता-अस्खलित रूप से पदों का उच्चारण करना / जैसे—करेमि भंते सामाश्य इत्यादि / 2. पद-सुबन्त और तिङन्त शब्द को पद कहते हैं। जैसे----करेमि यह प्रथम तिङन्त पद है, भंते यह सुबन्त द्वितीय पद है, 'सामाइयं' यह तृतीय पद है इत्यादि / 3. पदार्थ—पद के अर्थ करने को पदार्थ कहते हैं / जैसे करेमि = करता हूं, इस क्रियापद से सामायिक करने की उन्मुखता का बोध होता है, "भंते ! भगवन् ! , यह पद गुरुजनों को आमंत्रित करने के अर्थ का बोधक है, 'सामाइयं-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप सम का जिससे पाय-लाभ हो उस सामायिक को - यह सामायिक पद का अर्थ है। 4. पदविग्रह-संयुक्त पदों का प्रकृतिप्रत्ययात्मक विभाग रूप विस्तार करना / अनेक पदों का एक पद करना समास कहलाता है / जैसे भयस्य अंतो भयान्तः, जिनानाम् इन्द्र: जिनेन्द्र : इत्यादि / 5. चालना-प्रश्नोत्तरों द्वारा सूत्र और अर्थ की पुष्टि करना / 6. प्रसिद्धि---सूत्र और उसके अर्थ का विविध युक्तियों द्वारा जैसा कि वह है उसी प्रकार से स्थापना करना प्रसिद्धि है। अर्थात् प्रथम अन्य युक्ति देकर फिर सूत्रोक्त युक्ति की सिद्धि करना प्रसिद्धि कहलाती है। व्याख्या के इन षड्विध लक्षणों में से सूत्रोच्चारण और पदच्छेद करना सूत्रानुगम का विषय है-कार्य है। सूत्रानगम द्वारा यह कार्य किये जाने के बाद सूत्रालापकनिक्षेप-सूत्रालापकों को नाम, स्थापना आदि निक्षेपों में निक्षिप्त करता है, अर्थात् सूत्रालापकों को नाम स्थापना आदि निक्षेपों में सूत्रालापक निक्षेप विभक्त करता है। शेष पदविग्रह, चालना और प्रसिद्धि यह सब सूत्रस्पशिकनियुक्ति के विषय हैं / अर्थात् इन कार्यों को सूत्रस्पशिकनियुक्त्यनुगम संपादित करता है तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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