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________________ आनुपूर्वी निरूपण] 127 [4] से कि तं अणाणुपुवी? प्रणाणुपुब्धी एयाए चेव एगादियाए एगुत्तरियाए असंखेजगच्छगयाए सेढोए अण्णमण्णभासो दुरूवणो / से तं अणाणुपुत्री। [201-4 प्र.] भगवन् ! अनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [201-4 उ.] आयुष्मन् ! अनान पूर्वी का स्वरूप इस प्रकार जानना कि एक से लेकर असंख्यात पर्यन्त एक-एक की वृद्धि द्वारा निष्पन्न श्रेणी में परस्पर गुणाकार करने से प्राप्त महाराशि में से प्रादि और अंत के दो भंगों से न्यून भंग अनानुपूर्वी हैं। विवेचन--सूत्र में औपनिधिकी कालानपर्वी का वर्णन किया गया है। सूत्र का प्राशय स्पष्ट है कि आदि से प्रारंभ कर अंत तक का क्रम पूर्वानुपूर्वी, व्युत्क्रम से-अन्त से प्रारंभ कर आदि तक का क्रम पश्चानपर्वी तथा अन क्रम एवं व्युत्क्रम से आदि और अंत के दो स्थानों को छोड़कर शेष सभी बीच के भंग अनानुपूर्वी रूप हैं। प्रादि भंग पूर्वानुपूर्वी और अंतिम भग पश्चानुपूर्वी रूप होने से इनको ग्रहण न करने का कथन किया है। अब प्रकारान्तर से औपनिधिकी कालानुपूर्वी का वर्णन करते हैं / प्रोपनिधिको कालानपवी : द्वितीय प्रकार 202. [1] अहवा ओवणिहिया कालाणुपुग्वी तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-पुथ्वाणपुची 1 पच्छाणुपुथ्वी 2 अणाणुपुच्ची 3 / [202-1] अथवा प्रोपनिधिकी कालानुपूर्वी तीन प्रकार की कही गई है / जैसे-१. पूर्वानुपूर्वी, 2. पश्चानुपूर्वी, 3. अनानुपूर्वी / _[2] से कि तं पुश्वाणुपुथ्वी ? पुवाणुपुब्बी समए प्रावलिया आणापाणू थोवे लवे मुहुत्ते दिवसे अहोरते पक्खे मासे उद् प्रयणे संवच्छरे जुगे वाससए वाससहस्से वाससतसहस्से पुन्वंगे पुग्वे तुडियंगे तुडिए अडडंगे अडडे अववंगे अववे हूहुयंगे हुए उप्पलंगे उप्पले पउमंगे पउमे गलिणंगे णलिणे अथनिउरंगे अथनिउरे अउयंगे अउए नउयंगे नउए पउयंगे पउए चलियंगे चलिए सोसपहेलियंगे सीसपहेलिया पलिओबमे सागरोवमे ओसप्पिणी उस्सपिणी पोग्गलपरियट्टे तीतद्धा अणागतद्धा सम्वद्धा। से तं पुग्धाणुपुथ्वी / [202-2 प्र. भगवन् ! पूर्वानुपूर्वी का क्या रवरूप है ? [202-2 उ. प्रायुष्मन् ! समय, आवलिका, पानप्राण, स्तोक, लव, मुहूर्त, दिवस, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, वर्षशत, वर्षसहस्र, वर्षशतसहस्र, पूर्वाग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, अडडांग, अडड, अववांग, अवव, हुहुकांग, हुहुक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थनिपुरांग, अर्थनिपुर, अयुतांग, अयुत, नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका, पल्योपम, सागरोपम, अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी, पुद्गलपरावर्त, अतीताद्धा, अनागताद्धा, सर्वाद्धा रूप क्रम से पदों का उपन्यास करना काल संबन्धी पूर्वानुपूर्वी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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