________________ 128 [अनुयोगद्वारसूत्र [3] से कि तं पच्छाणुपुब्धी ? ....... पच्छाणुपुत्वी सम्वद्धा अणागतद्धा जाव समए / से तं पच्छाणुपुब्यो / |202-3 प्र.] भगवन् ! पश्चानपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [202-3 उ.] अायुष्मन् ! मर्वाद्धा, अनागताद्धा यावत् समय पर्यन्त व्युत्क्रम से पदों की स्थापना करना पश्चानुपूर्वी है / [4] से कि तं अणाणुपुत्वो? अणाणपुग्नी एयाए चेव एगादियाए एगुत्तरियाए अणंतगच्छगयाए सेढीए अण्णमणभासो दुरूवणे / से तं अणाणुपुची / से तं प्रोवणिहिया कालाणुपुब्बो / से तं कालाणुपुथ्वी। {202-4 प्र.] भगवन् ! अनानपर्वी का स्वरूप क्या है ? [202-4 उ.] अायुष्मन् ! इन्हीं की (समयादि की) एक से प्रारंभ कर एकोत्तर वृद्धि द्वारा सर्वाद्धा पर्यन्त की श्रेणी स्थापित कर परस्पर गुणाकार से निष्पन्न राशि में से प्राद्य और अंतिम दो भंगों को कम करने के बाद बचे शेष भंग अनानुपूर्वी हैं / इस प्रकार से प्रोपनिधिकी कालानुपूर्वी और साथ ही कालानुपूर्वी का वर्णन पूर्ण हुआ। विवेचन--सूत्र में प्रकारान्त र से ग्रोपनिधिकी कालानुपूर्वी का स्वरूप बताया है और अंत में कालानुपूर्वी के वर्णन की समाप्ति का संकेत किया है। सूत्रोक्त प्रोपनिधिकी कालानुपूर्वी की वक्तव्यता का स्पष्टीकरण इस प्रकार है औपनिधिकी कालानुपूर्वी के दोनों प्रकारों के अवान्तर भेदों के नाम समान हैं। प्रथम प्रकार में काल और द्रव्य का अभेदोपचार करके समयनिष्ठ द्रव्य का कालानुपूर्वी के रूप में और दूसरे प्रकार में कालगणना के क्रम का कथन किया है। समय काल का सबसे सूक्ष्म अंश और काल गणना की प्राद्य इकाई है। इससे समस्त प्रावलिका आदि रूप काल संज्ञानों की निष्पत्ति होती है। इसीलिये सूत्रकार ने सर्वप्रथम इसका उपन्यास किया है / समय ग्रादि का वर्णन प्रागे किया जाएगा। समय से लेकर सर्वाद्धा पर्यन्त अनुक्रम से उपन्यास पूर्वानुपूर्वी, व्युत्क्रम से उपन्यास पश्चानुपूर्वी एवं पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी गणना के अाद्य भंग को छोड़ कर यथेच्छ किसी भी भंग से उपन्यास करना अनानुपूर्वी रूप है / इस प्रकार समग्र रूप से कालानुपूर्वी का वर्णन करने के अनन्तर अत्र क्रमप्राप्त उत्कीर्तानुपूर्वी का निरूपण करते हैं / उत्कीर्तनानुपूर्वीनिरूपरण 203. [1] से कि तं उक्कित्तणाणुपुब्बी ? उक्कित्तणाणुपुत्वी तिविहा पणत्ता / तं जहा-पुन्वाणुपुव्वी 1 पच्छाणुपुब्वी 2 अणाणुपुन्वी 3 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org