SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 490
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 440] [अनुयोगदारसूत्र विवेचन-सूत्र 538 से 543 तक छह सूत्रों में द्रव्याध्ययन का प्राशय स्पष्ट किया है। इन सबकी व्याख्या पूर्वोक्त द्रव्यावश्यक को वक्तव्यता के अनुसार यहाँ भी समझ लेना चाहिये। किन्तु आवश्यक के स्थान पर अध्ययन पद का प्रयोग किया जाये। इसी प्रकार प्रागे के विवेचन के लिये भी जानना चाहिये। आगमद्रव्य-अध्ययन की नयप्ररूपणा में व्यवहार और संग्रहनय की दृष्टि का उल्लेख किया है, शेष नयदृष्टियों सम्बन्धी स्पष्टीकरण इस प्रकार है-- नैगमनय की दृष्टि से जितने भी अध्ययन शब्द के ज्ञाता किन्तु अनुपयुक्त जीव हैं, उतने ही आगमद्रव्याध्ययन हैं / व्यवहारनय की मान्यता नैगमनय जैसी है। संग्रहनय की मान्यता एक या अनेक अनुपयुक्त आत्माओं को एक आगमद्रव्य-अध्ययन मानने की है। भेद को नहीं मानने से ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त प्रात्मा एक आगमद्रव्य-अध्ययन है। ज्ञायक यदि अनुपयुक्त हो तो तीनों शब्दनय उसे अवस्तु-असत् मानते हैं। क्योंकि ज्ञायक होने पर अनुपयुक्तता संभव नहीं है और यदि अनुपयुक्त हो तो वह ज्ञायक नहीं हो सकता है / भाव-अध्ययन 544. सेकं तं भावज्झयणे ? भावज्झयणे दुबिहे पण्णत्ते / तं जहा-बागमतो य णोप्रागमतो य / [544 प्र.] भगवन् ! भाव-अध्ययन का क्या स्वरूप है ? [544 उ.] आयुष्मन् ! भाव-अध्ययन के दो प्रकार हैं--(१) आगमभाव-अध्ययन (2) नोग्रागमभाव-अध्ययन / 545. से कि तं आगमतो भावज्झयणे? आगसतो भावज्झयणे जाणए उवउत्ते / से तं आगमतो भावज्झयणे। [645 प्र.] भगवन् ! आगमभाव-अध्ययन का क्या स्वरूप है ? [545 उ.] अायुष्मन् ! जो अध्ययन के अर्थ का ज्ञायक होने के साथ उसमें उपयोगयुक्त भी हो, उसे पागमभाव-अध्ययन कहते हैं / 546. से किं तं नोआगमतो भावज्झयणे ? नोबागमतो भावज्यणे अज्झष्पस्साऽऽणयणं, कम्माणं अवचओ उबचियाणं / ___ अणुवचओ य नवाणं, तम्हा अज्झयणमिच्छति // 125 // से तं गोआगमतो भावज्झयणे / से तं भावज्झयणे / से तं अज्झयणे / [546 प्र.] भगवन् ! नोग्रागमभावाध्ययन का क्या स्वरूप है ? [546 उ. आयुष्मन् ! नोग्रागमभाव-अध्ययन का स्वरूप इस प्रकार हैअध्यात्म में आने-सामायिक आदि अध्ययन में चित्त को लगाने, उपाजित-पूर्वबद्ध कर्मों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy