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________________ निक्षेपाधिकार निरूपण] चत्तदेह जाव अहो! गं इमेणं सरोरसमुस्सएणं अज्झयणे ति पदं आधवियं जाव उवदंसियं ति, जहा को दिठंतो? अयं घयकुभे आसी, अयं महुकुमे आसी / से तं जाणयसरीरदब्वज्झयणे। [541 प्र.] भगवन् ! जायकशरीरद्रव्य-अध्ययन किसे कहते हैं ? [541 उ.] आयुष्मन् ! अध्ययन पद के अर्थाधिकार के ज्ञायक-जानकार के व्यपगतचैतन्य, च्युत, च्यावित त्यक्तदेह यावत् (जीव रहित शरीर को शय्यागत, संस्तारकगत, स्वाध्यायभूमि या श्मशानगत अथवा सिद्धशिलागत, देखकर कोई कहे) अहो इस शरीर रूप पुद्गलसंघात ने 'अध्ययन' इस पद का व्याख्यान किया था, यावत (प्ररूपित, दर्शित, निदर्शित), उपदर्शित किया था, (बैसा यह शरीर ज्ञायकशरीरद्रव्य-अध्ययन है।) [प्र.] एतद्विषयक कोई दृष्टान्त है ? [उ.] (इस प्रकार शिष्य के पूछने पर प्राचार्य ने उत्तर दिया) जैसे घड़े में से घी या मधु के निकाल लिये जाने के बाद भी कहा जाता है-यह घी का घड़ा था, यह मधुकुंभ था / यह ज्ञायकशरीरद्रव्य-अध्ययन का स्वरूप है। 542. से कि तं भवियसरीरदग्वज्झयण ? भवियसरीरदवशयणे जे जीवे जोणीजम्मणनिक्खंते इमेणं चेव प्रादत्तएणं सरीरसमुस्सएणं जिणदिठेणं भावेणं अज्झयणे ति पयं सेयकाले सिक्खिस्सति ण ताव सिक्खति, जहा को दिलैंतो? प्रयं धयकुभे भविस्सति, अयं महुकुमे भविस्सति / से तं भवियसरीरदब्वज्झयणे। [542 प्र.] भगवन् ! भव्यशरीरद्रव्य-अध्ययन का क्या स्वरूप है ? 542 उ] आयुष्मन् ! जन्मकाल प्राप्त होने पर जो जीव योनिस्थान से बाहर निकला और इसी प्राप्त शरीरसमुदाय के द्वारा जिनोपदिष्ट भावानुसार 'अध्ययन' इस पद को सीखेगा, लेकिन अभी-वर्तमान में नहीं सीख रहा है (ऐसा उस जीव का शरीर भव्यशरीरद्रव्याध्ययन कहा जाता है)। [प्र.] इसका कोई दृष्टान्त है ? |उ.] जैसे किसी घड़े में अभी मधु या घी नहीं भरा गया है, तो भी उसको यह घृतकु भ होगा, मधुकुभ होगा कह्ना / यह भव्यशरीरद्रव्याध्ययन का स्वरूप है। 543. से कि तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरिले दध्वजायणे ? जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दवज्झयणे पत्तय-पोत्थय लिहियं / से तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरिते दव्वज्झयणे / से तं गोमागमओ दग्वज्झणे / से तं दब्यज्झयणे। . 543 प्र. भगवन् ! ज्ञायकशरीरभव्यशरीव्यतिरिक्तद्रव्याध्ययन का क्या स्वरूप है ? [543 उ.] आयुष्मन् ! पत्र या पुस्तक में लिखे हए अध्ययन को ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्याध्ययन कहते हैं / इस प्रकार से नोनागमद्रव्याध्ययन का और साथ ही द्रव्याध्ययन का वर्णन पूर्ण हुना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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