SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 479
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अर्थाधिकार निरूपण [429 सेवन करने में प्रवृत्ति नहीं करेगा ? अर्थात सभी प्रवृत्ति करेंगे। क्योंकि इस सिद्धान्त के अनुसार वे यह तो जान ही लेंगे कि हम क्षणिक है अतः नरकादि के दुःख रूप फल तो हमें भोगना ही नहीं पड़ेंगे, फलभोग के काल तक हम रहने वाले नहीं है।' इसी तरह के अन्यान्य अनर्थादिकों से युक्त होने के कारण परसमय मिथ्यादर्शन रूप है। इसी कारण शब्दादि नयत्रय को स्वसमयवक्तव्यता ही मान्य है। इस प्रकार से वक्तव्यता सम्बन्धी नयदृष्टियां जानना चाहिये। अव अर्थाधिकार का निरूपण करते हैं। अर्थाधिकारनिरूपण 526. से कि तं अत्याहिगारे ? अत्याहिगारे जो जस्स अज्झयणस्स अस्थाहिगारो। तं जहा सावज्जजोगविरती 1 उक्कित्तण 2 गुणवप्रो य पडिवत्ती 3 / खलियस्स निदणा 4 वणतिगिच्छ 5 गुणधारणा 6 चेव / / 123 // से तं अत्याहिगारे। [526 प्र.] भगवन् ! अर्थाधिकार का क्या स्वरूप है ? [526 उ.] आयुष्मन् ! (आवश्यकसूत्र के) जिस अध्ययन का जो अर्थ-वर्ण्य विषय है उसका कथन अर्थाधिकार कहलाता है / यथा 1. सावद्ययोगविरति यानी सावध व्यापार का त्याग प्रथम (सामायिक) अध्ययन का अर्थ है। 2. (चतुविशतिस्तव नामक) दूसरे अध्ययन का अर्थ उत्कीर्तन-स्तुति करना है / 3. (वंदना नामक) तृतीय अध्ययन का अर्थ गुणवान् पुरुषों का सम्मान, वन्दना, नमस्कार करना है। 4. (प्रतिक्रमण अध्ययन में) प्राचार में हुई स्खलनात्रों-पापों आदि की निन्दा करने का अर्थाधिकार है। 5. (कायोत्सर्ग अध्ययन में) व्रणचिकित्सा करने रूप अर्थाधिकार है। 6. (प्रत्याख्यान अध्ययन का) गुण धारण करने रूप अर्थाधिकार है। यही अर्थाधिकार है। विवेचन--जिस अध्ययन का जो अर्थ है वह उसका अर्थाधिकार कहलाता है / जैसे आवश्यकसूत्र के छह अध्यायों के गाथोक्त वय॑विषय हैं। इनका प्राशय पूर्व में बताया जा चुका है / समवतारनिरूपण 527. से कि तं समोयारे ? समोयारे छविहे पण्णत्ते / तं० ---णामसमोयारे ठवणसमोयारे दव्वसमोयारे खेत्तसमोयारे कालसमोयारे भावसमोयारे। [527 प्र.] भगवन् ! समवतार का क्या स्वरूप है ? 1. सर्वं क्षणिकमित्येतद् ज्ञात्वा को न प्रवर्तते ? विषयादी विपाको मे न भावीति विनिश्चयात / / -अनुयोग. मलधारीयावत्ति पत्र 244 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy