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________________ 330] [अनुयोगद्वारसूत्र शरीरनिरूपण 405. कति णं भंते ! सरीरा पं० ? गो. ! पंच सरीरा पण्णत्ता / तं जहा-ओरालिए वेउम्बिए आहारए तेयए कम्मए / [405 प्र.] भगवन् ! शरीर कितने प्रकार के कहे गये हैं ? [405 उ.] गौतम ! शरीर पांच प्रकार के कहे गये हैं, यथा-१. प्रौदारिक, 2. वैक्रिय, 3. आहारक, 4. तेजस, 5. कार्मण / विवेचन-उक्त प्रश्नोत्तर में शरीर के पांच भेदों का नामोल्लेख किया गया है। शरीर-जो शीर्ण-जर्जरित होता है अर्थात् उत्पत्तिसमय से लेकर निरंतर जर्जरित होता रहता है उसे शरीर कहते हैं। संसारी जीवों के शरीर की रचना शरीरनामकर्म के उदय से होती है। शरीरनामकर्म कारण है और शरीर कार्य है / औदरिक आदि वर्गणाएँ उनका उपादानकारण हैं और औदारिकशरीरनामकर्म आदि निमित्तकारण हैं / इनके लक्षण क्रमश: इस प्रकार हैं औदारिकशरीर--इसमें मूल शब्द 'उदार' है। शास्त्रों में 'उदार' के तीन अर्थ बताये हैं---१. जो शरीर उदार अर्थात् प्रधान है। औदारिकशरीर की प्रधानता तीर्थंकरों और गणधरों के शरीर की अपेक्षा समझना चाहिए / अथवा प्रौदारिक शरीर से मुक्ति प्राप्त होती है एवं प्रौदारिक शरीर में रहकर ही जीव मुक्तिगमन में सहायक उत्कृष्ट संयम की आराधना कर सकता है। इस कारण उसे प्रधान माना गया है। 2. उदार अर्थात् विस्तारवान्--विशाल शरीर / औदारिक शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना कुछ अधिक एक हजार योजन की है, जबकि वैक्रियशरीर का इतना प्रमाण नहीं है / उसकी अधिक से अधिक अवगाहना पांच सौ धनुष की है और वह मात्र सातवीं नरकपृथ्वी के नारकों की होती है, अन्य की नहीं। यद्यपि उत्तरवैक्रियशरीर एक लाख योजन तक का होता है, किन्तु वह भवान्त पर्यन्त स्थायी नहीं होता / अथवा शेष शरीरों की वर्गणानों की अपेक्षा प्रौदारिक शरीर की बर्गणामों की अवगाहना अधिक है। इसलिये यह उदारविस्तारवान् है। 3. उदार का अर्थ होता है-मांस, हड्डियों, स्नायु प्रादि से बद्ध शरीर / मांस-मज्जा आदि सप्त धातु-उपधातुएं औदारिकशरीर में ही होती हैं / इस शरीर के स्वामी मनुष्य और तिर्यच वैक्रियशरीर---विविध क्रियाओं को करने में सक्षम शरीर अथवा विशिष्ट (विलक्षण) क्रिया करने वाला शरीर वैक्रिय कहलाता है / प्राकृत में 'वेउविए' शब्द है, जिसका संस्कृत रूप 'वैकुर्विक' होता है / विकुर्वणा के अर्थ में विकु धातु से वैकुविक शब्द बनता है। यह बैंक्रियशरीर दो प्रकार का है-लब्धिप्रत्ययिक और भव प्रत्यायिक / तपोविशेष प्रादि विशिष्ट निमित्तों से जो प्राप्त हो उसे लब्धिप्रत्ययिक और जो भव-जन्म के निमित्त से प्राप्त हो उसे भवप्रत्ययिक वैक्रियशरीर कहते हैं / लब्धिजन्य मनुष्यों और तिर्यंचों को तथा भवजन्य देव-नारकों को होता है। आहारकशरीर-चतुर्दशपूर्वविद् मुनियों के द्वारा विशिष्ट प्रयोजन के होने पर योगबल से जिस शरीर का निर्माण किया जाता है अथवा जिसके द्वारा केवलज्ञानी के सामीप्य से सूक्ष्म पदार्थ संबंधी शंकाओं का समाधान प्राप्त किया जाता है, उसे पाहारकशरीर कहते हैं। आहारक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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