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________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] ऋद्धिसंपन्न संयत अपने क्षेत्र में केवलज्ञानी का अभाव होने और दूसरे क्षेत्र में उनके विद्यमान होने किन्तु उस क्षेत्र में औदारिकशरीर से पहुंचना संभव नहीं होने से इस शरीर को निष्पन्न करते हैं। इसका निर्माण प्रमत्तसंयतगुणस्थानवर्ती मुनि करते हैं / तेजसशरीर-जो शरीर में दीप्ति और प्रभा का कारण हो / तेजोमय होने से भक्षण किये गये भोजनादि के परिपाक का कारण हो अथवा तेज का विकार हो उसे तैजसशरीर कहते हैं / यह सभी संसारी जीवों में पाया जाता है / यह दो प्रकार का है-नि:सरणात्मक और अनिःसरणात्मक / अनि:सरणात्मक मक तजसशरीर भक्त अन्न-पान सादि का पाचक होकर शरोरान्तवती रहता है तथा प्रौदारिक, वैक्रिय और ग्राहारकशरीरों में तेज, प्रभा, कांति का निमित्त है। नि:सरणात्मक तेजस शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार का है / शुभ तेजस सुभिक्ष, शांति आदि का कारण बनता है और अशुभ इसके विपरीत स्वभाव वाला है / यह शरीर तैजसलब्धिप्रत्ययिक होता है। कार्मणशरीर—अष्टविध कर्मसमुदाय से जो निष्पन्न हो, औदारिक अादि शरीरों का जो कारण हो तथा जो जीव के साथ परभव में जाए वह कार्मणशरीर है। पांच शरीरों का क्रमनिर्देश--ौदारिक अादि शरीरों का क्रमविन्यास करने का कारण उनकी उत्तरोत्तर सक्षमता है। औदारिकशरीर स्वल्प पुदगलों से निष्पन्न होता है और इसका परिणमन शिथिल एवं बादर रूप है / इसके अनन्तर बहुत और बहुतर पुद्गलपरमाणुओं से आगेआगे के शरीर निष्पत्र होते हैं किन्तु उनका परिणमन सूक्ष्म-सूक्ष्मतर होता जाता है। कार्मणशरीर इतना सूक्ष्म है कि उसको चर्मचक्षुओं से नहीं देखा जा सकता। परमावधिज्ञानी और केवलज्ञानी ही उसको जानते-देखते हैं। उत्तरोत्तर परमाणुस्कन्धों की बहुलता के साथ इनकी सघनता भी क्रमश: अधिक-अधिक है / तैजस और कार्मणशरीर समस्त संसारी जीवों को प्राप्त होते हैं और इनका संबन्ध अनादिकालिक है / मुक्ति प्राप्त नहीं होने तक ये रहते हैं। ___ इस प्रकार सामान्य रूप से औदारिक आदि शरीरों का निरूपण करके अब चौबीस दंडकवर्ती जीबों में उनका विचार करते हैं। चौबीस दंडकवर्ती जीवों को शरीरप्ररूपरणा 406. रइयाणं भंते ! कति सरीरा पन्नत्ता ? गो० ! तयो सरीरा पं० / तं० - वेउन्विए तेयए कम्मए। [406 प्र.] भगवन् ! नरयिकों के कितने शरीर कहे गये हैं ? [406 उ.] गौतम ! उनके तीन शरीर कहे गये हैं। वे इस प्रकार--वैक्रिय, तेजस और कार्मण शारीर। 407. असुरकुमाराणं भंते ! कति सरीरा पं०? गो० ! तओ सरीरा पण्णत्ता / तं जहा-वेउविए तेयए कम्मए / एवं तिण्णि तिणि एते चेव सरोरा जाव थणियकुमाराणं भाणियन्वा / [407 प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के कितने शरीर होते हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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