________________ [अनुयोगद्वारसूत्र व्यवहारनय में लोकव्यवहार की प्रधानता होती है। वह सर्वत्र लोकव्यवहार की प्रधानता को लेकर प्रवृत्त होता है / अतएव जब लोक में नैगमनयोक्त अवस्थाओं में सर्वत्र प्रस्थक व्यवहार होता है तो यह नय भी वैसा ही मानता है / संग्रहनय समस्त वस्तुओं को सामान्य रूप से ग्रहण करता है। यदि किसी विवक्षित प्रस्थक को ही प्रस्थक मानें तो विवक्षित प्रस्थक से भिन्न प्रस्थकों में प्रस्थकत्व का व्यपदेश नहीं हो सकेगा। क्योंकि सामान्य के बिना विशेषों का अस्तित्व ही नहीं है। ___ऋजसूत्रनय के अनुसार प्रस्थक भी और उसके द्वारा मेय वस्तु भी प्रस्थक है / यह नय नष्ट एवं अनुत्पन्न होने से सत्ताविहीन भूत और भविष्यत् कालिक मान और मेय को नहीं मानकर वर्तमानकालिक मान और मेय को ही मानता है / अतएव जिस समय प्रस्थक अपना कार्य कर रहा है और धान्यादिक मापे जा रहे हैं तभी इस नय के अनुसार प्रस्थक माने जाते हैं / यह नय पूर्व नयों की अपेक्षा विशुद्धतर है। __ शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये तीनों शब्दनय हैं / इनमें शब्द की प्रधानता है। इसीलिये इन्हें शब्दनय कहा जाता है और शब्द के अनुसार ही ये अर्थ का प्रतिपादन करते हैं।' इन तीनों शब्दनयों के मत में प्रस्थक के स्वरूप के परिज्ञान से उपयुक्त हा जीव प्रस्थक है। ये नय भावप्रधान हैं / इसलिये ये भाव प्रस्थक को-प्रस्थक के उपयोग को-प्रस्थक मानते हैं और उपयोग जीव का लक्षण है / इसलिये जीव का लक्षण रूप उपयोग जब प्रस्थक को विषय करता है, तब वह उस रूप में परिणत हो जाता है, जिससे प्रस्थक के उपयोग को प्रस्थक मान लिया जाता है। अथवा प्रस्थक के बनाने वाले व्यक्ति के जिस उपयोग के द्वारा प्रस्थक निष्पन्न होता है, उस उपयोग में वतमान वह को प्रस्थक कहा जाता है। क्योकि कता में जब तक प्रस्थक बनाने का उपयोग नहीं ह प्रस्थक नहीं बना सकेगा। इसलिये वह कर्ता भी उस प्रस्थक को निष्पन्न करने वाले उपयोग से अनन्य होने के कारण प्रस्थक कहा जाता है। वसतिदृष्टान्त द्वारा नयनिरूपण 475. से कि तं वसहिदिठ्ठतेणं ? वसहिदिळेंतेणं से जहानामए केइ पुरिसे कंचि पुरिसं बदिज्जा, कहिं भवं वससि ? तत्थ अविसुद्धो गमो भणइ–लोगे वसामि / / __ लोगे तिविहे पण्णते, तं जहा-उड्डलोए अधोलोए तिरियलोए, तेसु सत्वेसु भवं वससि ? विसुद्धतराओ गमो भगइ-तिरियलोए सामि / तिरियलोए जंबुद्दीवादीया सयंभुरमणपज्जवसाणा असंखेज्जा-दीव-समुद्दा पण्णता, तेसु सव्वेसु भवं वससि ? विसुद्धतरानो गमो भणति-जंबुद्दीवे वसामि / जंबुद्दीवे दस खेत्ता पण्णत्ता, तं जहा-भरहे एरवए हेमवए एरष्णवए हरिवस्से रम्भगवस्से 1. प्रादि के नैगम आदि ऋजुसूत्रनय पर्यन्त चार नय अर्थनय हैं। क्योंकि इनकी अर्थ में ही मान्यता प्रधान-मुख्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org