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________________ प्रमाणाधिकार निरूपण 1333 तेजस और कार्मण शरीर तो सभी संसारी जीवों में होते ही हैं। उनके अतिरिक्त मनुष्यों और तिर्यंचों में भवस्वभाव से औदारिक और देव-नारकों में बैक्रियशरीर होते हैं। प्राहारकशरीर मनुष्यों को लब्धिविशेष से प्राप्त होता है और किन्हीं विशिष्ट मनुष्यों के ही होता है / यहाँ सामान्य रूप से ही मनुष्यों में उसके होने का निर्देश किया है। वायुकायिक और पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों में जो वैक्रियशरीर का सद्भाव कहा है, उसका तात्पर्य यह है कि वैक्रियशरीर जन्मसिद्ध और कृत्रिम दो प्रकार का है / जन्मसिद्ध वैक्रियशरीर देवों और नारकों के ही होता है अन्य के नहीं और कृत्रिम वैक्रिय का कारण लब्धि है। लब्धि एक प्रकार की शक्ति है, जो कतिपय गर्भज मनुष्यों और तिर्यचों में भी संभवित है तथा कुछ बादर वायुकायिक जीवों में भी वैक्रियशरीर पाया जाता है। इसलिये वायुकायिक जीवों में चार शरीरों के होने का विधान किया है / पांच शरीरों का संख्यापरिमाण 413. केवतिया णं भंते ! ओरालियसरीरा पण्णत्ता ? गो० ! दुविहा पण्णता / तं जहा-बखेल्लया य मुक्केल्लया य / तत्थ णं जे ते बल्लया ते गं असंखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीहिं अवहोरंति कालओ, खेत्ततो असंखेज्जा लोगा / तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगाते णं अणंता, अणताहि उस्सप्पिणी-प्रोसप्पिणोहि अवहीरंति कालओ, खेत्ततो अणंता लोगा, दवओ अभवसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणं अतभागो।। { 413 प्र.] भगवन् ! औदारिकशरीर कितने प्रकार के प्ररूपित किये हैं ? [413 उ. | गौतम ! प्रौदारिकशरीर दो प्रकार के प्ररूपित किये हैं। वे इस प्रकार१. बद्ध औदारिकशरीर, 2. मुक्त औदारिकशरीर / उनमें जो बद्ध औदारिकशरीर हैं वे असंख्यात हैं / के कालतः असंख्यात उपिणियों-अबसपिणियों द्वारा अपहृत होते हैं और क्षेत्रतः असंख्यात लोकप्रमाण हैं / जो मुक्त हैं, वे अनन्त हैं / कालत: वे अनन्त उत्सपिणियोंअवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं और क्षेत्रतः अनन्त लोकप्रमाण हैं / द्रव्यतः वे मुक्त औदारिकशरीर प्रभवसिद्धिक (अभव्य) जीवों से अनन्त गुणे और सिद्धों के अनन्तवें भागप्रमाण हैं ! विवेचन-ऊपर बद्ध और मुक्त प्रकारों से औदारिकशरीरों की संख्या का परिमाण बतलाया बद्ध-बंधे हुए / बद्ध उसे कहते हैं जो पृच्छा के समय जीव के साथ संबद्ध हैं और मुक्त वह है जिसे जीव ने पूर्वभवों में ग्रहण करके त्याग दिया है / यहाँ औदारिकशरीर के प्रकारों के विषय में पूछे जाने पर उत्तर में बद्ध और मुक्त कहने का कारण यह है कि बद्ध और मुक्त शरीरों की पृथक्-पृथक् संख्या कही जाएगी और बद्ध तथा मुक्त औदारिकशरीरों की संख्या कहीं द्रव्य से, कहीं क्षेत्र से तथा कहीं काल से (समय, पावलिका आदि से) कही जायेगी। भाव की विवक्षा द्रव्य के अंतर्गत कर लेने से उसकी अपेक्षा संख्या का कथन सूत्र में नहीं किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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