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________________ 160] [अनुयोगद्वारसूत्र [241 प्र.] भगवन् ! उपशमनिष्पन्न औपशमिकभाव का क्या स्वरूप है ? [241 उ.] आयुष्मन् ! उपशमनिष्पन्न प्रौपशमिकभाव के अनेक प्रकार हैं। जैसे कि उपशांतक्रोध यावत् उपशांतलोभ, उपशांतराग, उपशांतद्वेष, उपशांतदर्शनमोहनीय, उपशांतचारित्रमोहनीय, उपशांतमोहनीय, प्रौपशमिक सम्यक्त्वलब्धि, औपशमिक चारित्रलब्धि, उपशांतकषाय छद्मस्थवीतराग ग्रादि उपशमनिष्पन्न प्रोपशमिकभाव हैं। इस प्रकार से औपशमिकभाव का स्वरूप जानना चाहिये / विवेचन----सूत्रकार ने इन तीन सूत्रों में प्रौपशमिकभाव का स्वरूप बतलाया है। उपशम से होने वाला औषशमिक भाव दो प्रकार का है। एक प्रकार का प्रौपशमिक भाव तो वह है जो मोहनीयकर्म के उपशम से होना है। मोहनीयकर्म दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के भेद से दो प्रकार का है / दर्शनमोहनीय के उदय से जीव प्रात्मस्वरूप का दर्शन, श्रद्धान करने में असमर्थ रहता है। उसकी श्रद्धा-प्रतीति यथार्थ नहीं होती है और चारित्रमोहनीय के उदय रहते जीव प्रात्मस्वरूप में स्थिर नहीं हो पाता है / दर्शनमोहनीय के तीन भेदों और चारित्रमोहनीय के 25 भेदों को मिलाने से मोहनीयकर्म के अट्ठाईस भेद हैं / मोहनीयकर्म का पूर्ण उपशम ग्यारहवें गुणस्थान में होता है। __दर्शनमोहनीय के उपशम से सम्यक्त्वलब्धि की और चारित्रमोहनीय के उपशम से चारित्रलब्धि की प्राप्ति होती है। यह बतलाने के लिये सूत्र में उवसमिया सम्मत्तलद्धी, उवसमिया चारित्रलद्धी यह दो पद दिये हैं / - दुसरे उपशमनिस्पन्न औषशमिकभाव के अनेक भेद दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के अनेक प्रभेदों के उपशांत होने की अपेक्षा से जानना चाहिये / इसीलिये उपशांतक्रोध प्रादि का निर्देश किया है। उपशांतकषायछद्मस्थवीतराग—इसमें उपशांतकषाय, छगस्थ और वीतराग, यह तीन शब्द हैं / अर्थात् कषाय के उपशांत हो जाने से राग-द्वेष का सर्वथा उदय नहीं है, किन्तु छद्म (ज्ञानावरण ग्रादि प्रावरणभत घातिकर्म ) अभी शेष हैं। इस प्रकार की स्थिति उपशांतकषायछदमस्थवीतराग कहलाती है। इसमें मोहनीयकर्म की सत्ता नो है, किन्तु उदय नहीं होने से शरद् ऋत में होने वाले सरोवर के जल की तरह मोहनीयकर्म के उपशम से उत्पन्न होने वाले जीव के निर्मल परिणाम होते हैं। क्षायिकभाव 242. से कि तं खइए ? खइए दुविहे पणत्ते / तं जहा - खए य 1 खयनिष्फण्णे य 2 / [242 प्र.] भगवन् ! क्षायिक भाव का क्या स्वरूप है ? [242 उ.] अायुष्मन ! क्षायिक भाव दो प्रकार का कहा गया है / यथा—१. क्षय और 2. क्षयनिष्पन्न / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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