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________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [251 [340 उ.] आयुष्मन् ! परमाणु दो प्रकार का कहा है, यथा-१ सूक्ष्म परमाणु और 2 व्यवहार परमाणु / 341. तत्थ णं जे से सुहुने से ठप्पे / [341] इनमें से सूक्ष्म परमाणु स्थापनीय है अर्थात् यहाँ वह अधिकृत नहीं है। 342. से कि तं बावहारिए ? वावहारिए अणंताणं सुहुमपरमाणुपोग्गलाणं समुदयसमितिसमागमेणं से एगे वावहारिए परमाणुपोग्गले निप्पज्जति / [342 प्र.] भगवन् ! व्यवहार परमाणु किसे कहते हैं ? [342 उ.] आयुष्मन् ! अनन्तानंत सूक्ष्म परमाणु ग्रों के समुदाय-समागम (एकीभाव रूप मिलन) सं एक व्यावहारिक परमाणु निष्पन्न होता है / विवेचन--सूत्र में उत्सेधांगुल को प्राद्य इकाई परमाणु का स्वरूप बतलाया है / परम+अणु = परमाणु, अर्थात् सब द्रव्यों में जिसकी अपेक्षा अन्य कोई अणुत्तर (अधिक छोटा) न हो, जिसमें चरमतम अणुत्व हो या जिसका पुनः विभाग न हो सके, ऐसे अविभागी अंश को परमाणु कहते हैं। परमाणु सामान्यतया पुद्गलद्रव्य की अविभागी पर्याय है, किन्तु कहीं-कहीं अन्य द्रव्यों के भी सूक्ष्मतम बुद्धिकल्पित भाग को परमाणु कहा जाता है। इस दृष्टि से परमाणु के चार प्रकार हैं-१ द्रव्यपरमाणु, 2 क्षेत्रपरमाणु, 3 कालपरमाणु, 4 भावपरमाणु / परमाणु से जो ब्राशय ग्रहण किया जाता है, उसके लिए कर्म साहित्य में अविभागप्रतिच्छेद शब्द का प्रयोग किया जाता है / परमाणु, पुद्गलद्रव्य की पर्याय होने से रूपी-मूर्त है। उसमें पौद्गलिक गुण-वर्ण, गंध, रस और स्पर्श पाये जाते हैं / तथापि अपनी सूक्ष्मता के कारण वह सामान्य ज्ञानियों द्वारा इन्द्रियग्राह्य नहीं है-दृष्टिगोचर नहीं होता है / लेकिन पारमार्थिक प्रत्यक्ष वाले केवलज्ञानी और क्षायोपशमिक ज्ञानी (परम अवधिज्ञानी) उसे जानते-देखते हैं। सामान्यतया तो एक प्राकाशप्रदेश में एक परमाणु रहता है. लेकिन इसके साथ ही परमाणु में सूक्ष्म परिणाम व अवगाहन रूप ऐसी विलक्षण शक्ति रही हुई है कि जिस प्रकाशप्रदेश को एक परमाणु ने व्याप्त कर लिया है, उसी आकाशप्रदेश में दूसरा परमाणु भी पूर्ण स्वतन्त्रता के साथ रह सकता है। इतना ही नहीं, उसी प्राकाशप्रदेश में सूक्ष्म रूप से परिणत अनन्तप्रदेशी स्कन्ध भी रह सकता है / जैसे एक कमरे में एक दीपक का प्रकाश पर्याप्त है, किन्तु उसमें अन्य सैकड़ों दीपकों का प्रकाश भी समा जाता है। इसी प्रकार उस एक दीपक के अथवा सैकड़ों दीपकों के प्रकाश को एक लधु वर्तन से आच्छादित कर दिया जाए तो उसी में वह प्रकाश सिमट जाता है। इससे स्पष्ट है कि उन प्रकाशपरमाणुओं की तरह पुद्गल में संकोच-विस्तार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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