________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [249 का लक्षण बताया है.---'सूयी सूयीए गुणिया पथरंगुले' अर्थात् सूच्यंगुल को सूच्यंगुल से गुणा करने पर जो प्रमाण हो वह प्रतरांगुल है / यद्यपि यह प्रतरांगुल भी असंख्यात प्रदेशात्मक होता है, लेकिन असत्कल्पना से पूर्व में सूच्यंगुल के रूप में स्थापित तीन प्रदेशों को तीन प्रदेशों से गुणा करने पर जो नौ प्रदेश हुए, उन नौ प्रदेशों को प्रतरांगुल के रूप में जानना चाहिये / असत्कल्पना से इसको स्थापना का प्रारूप इस प्रकार होगा- :: सूच्यंगुल और प्रतरांगुल में यह अंतर है कि सूच्यंगुल में दीर्घता तो होती है किन्तु बाहल्यविष्कंभ एक प्रदेशात्मक ही होता है और प्रतरांगुल में दीर्घता एवं विष्कम्भ-चौड़ाई समान होती है। घनांगुल-गणितशास्त्र के नियमानुसार तीन संख्याओं का परस्पर गुणा करने को घन कहते हैं / ऐसा करने से उस वस्तु की दीर्घता-लम्बाई, विष्कम्म---चौड़ाई और पिंडत्व-मोटाई का ज्ञान होता है / घनांमुल के द्वारा यही कार्य निष्पन्न किया जाता है। इसीलिये सूत्र में घनांगुल का लक्षण बताया है कि प्रतरांनुल को सूच्यं गुल से गुणा करने पर घनांगुल निष्पन्न होता है-'पयरं सूईए गुणितं वणंगुले / ' प्रकारान्तर से इस प्रकार भी कहा जा सकता है-सूच्यंगुल की राशि का परस्पर तीन बार गुणा करने पर प्राप्त राशि-गुणनफल घनांगुल है। यद्यपि यह घनांगुल भी असंख्यात प्रदेशात्मक होता है, लेकिन असत्कल्पना हो उसे यों समझना चाहिये कि पूर्व में बताये गये नौ प्रदेशात्मक प्रतरांगुल में सूच्यंगुल सूचक तीन का गुणा करने पर प्राप्त सत्ताईस संख्या धनांगुल की बोधक है। इनकी स्थापना पूर्वोक्त नवप्रदेशात्मक प्रतर के नीचे और ऊपर नौ-नौ प्रदेशों को देकर करनी चाहिये। यह स्थापना पायाम-विष्कम्भ-पिंउ (लम्बाई-चौड़ाई-मोटाई) की ओधक है और इन सबमें तुल्यता होती है। उक्त कथन का सारांश यह हुआ कि सूच्यंगुल द्वारा वस्तु को दीर्घता, प्रतरांगुल द्वारा दीर्घता और विष्कंभ एवं घनांगुल द्वारा दीर्घता, विष्कंभ और पिंड को जाना जाता है। अंगुलत्रिक का अल्पबहुत्व 338. एतेसि णं भंते ! सूतिअंगुल-पयरंगुल-घणंगुलाण य कतरे कतरेहितो अप्पे वा बहुए वा तुल्ले वा विसेसाहिए वा ? सव्वत्थोवे सूतिअंगुले, पतरंगुले असंखेज्जगुणे, घणंगुले असंखेज्जगुणे / से तं आयंगुले / [338 प्र.] भगवन् ! इन सूच्यंगुल, प्रतरांगुल और घनांगुल में से कौन किससे अल्प, कौन किससे अधिक, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [338 उ.] आयुष्मन् ! इनमें सूच्यं गुल सबसे अल्प है, उससे प्रतरांगुल असंख्यातगुणा है और उससे घनांगुल असंख्यातगुणा है / 000 000 000 000000000 000000000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org