________________ चरणानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानुयोग। श्वेताम्बर और दिगम्बर ग्रन्थों में नाम और कर्म में कुछ अन्तर अवश्य है पर भाव सभी का एक-सा है। श्वेताम्बर दृष्टि से सर्वप्रथम चरणानुयोग है / 28 रत्नकरण्डश्रावकाचार में प्राचार्य समन्तभद्र। ने चरणानुयोग की परिभाषा करते हुए लिखा है-गृहस्थ और मुनियों के चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के विधान करने वाले अनुयोग को चरणानुयोग कहते हैं / द्रव्यसंग्रह की टीका में लिखा है-उपासकाध्ययन प्रादि में श्रावक का धर्म और मुलाचार, भगवती आराधना आदि में यति का धर्म जहाँ मुख्यता से कहा गया है, वह चरणानुयोग है। 30 बहद्रव्यसंग्रह, अनगारधर्मामृत टीका प्रादि में भी चरणानूयोग की परिभाषा इसी प्रकार मिलती है / प्राचार सम्बन्धी साहित्य परणानुयोग में आता है। जिनदासगणि३२ महत्तर ने धर्मकथानुयोग की परिभाषा करते हुए लिखा है सर्वज्ञोक्त अहिंसा आदि स्वरूप धर्म का जो कथन किया जाता है, अथवा अनुयोग के विचार से जो धर्मसम्बन्धी कथा कहो जाती है, वह धर्मकथा है। प्राचार्य हरिभद्र 33 ने भी अनुयोगद्वार की टीका में अहिंसा लक्षणयुक्त धर्म का जो पाख्यान है, उसे धर्मकथा कहा है। महाकवि पुष्पदन्त ने भी लिखा है-जो अभ्युदय, निःश्रेयस की संसिद्धि करता है और सद्धधर्म से जो निबद्ध है, वह सद्धधर्मकथा है। धर्मकथातुयोग को ही दिगम्बर परम्परा में प्रथमानुयोग कहा है। रत्नकरण्डश्रावकाचार३५ में लिखा है---धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का परमार्थज्ञान सम्यग्ज्ञान है, जिसमें एक पुरुष या विषष्टि श्लाघनीय पुरुषों के पवित्र-चरित्र में रत्नत्रय और ध्यान का निरूपण है, वह प्रथमानुयोग है। गणितानुयोग, गणित के माध्यम से जहाँ विषय को स्पष्ट किया जाता है, दिमम्बर परम्परा में इसके स्थान पर करणानुयोग यह नाम प्रचलित है। करणानुयोग का अर्थ है-लोक-प्रलोक के विभाग को, युगों 28. (क) आवश्यकनियुक्ति 363-777 (ख) विशेषावश्यकभाष्य 2284-2295 29. गृहमेध्यनगाराणां चारित्रोत्पत्ति-बृद्धिरक्षाङ्गम् / चरणानुयोगसमयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति / / –रत्नकरण्ड. 45 30. द्रव्यसंग्रह टीका, 42118229 31. सकलेतरचारित्र-जन्म रक्षा विद्धिकृत / विचारणीयश्चरणानुयोगश्चरणारतः / / –अनगारधर्मामृत, 3.11 पं. आशाधरजी 32. धम्मकहा नाम जो अहिंसादिलक्खणं सब्बण्णपणीयं धम अणुयोगं वा कहेइ एसा धम्मकहा। दशवकालिकचूणि, पृ. 29 33. अहिंसालक्षणधर्मान्वाख्यानं धर्मकथा। -अनुयोगद्वार टीका, पृ. 10 34. यतोऽभ्युदयनिःश्रेयसार्थ-संसिद्धिरंजसा / _सद्धर्मस्त निबद्धा या सा सद्धर्मकथा स्मृता। -महापुराण, महाकवि पुष्पदंत, 11120 35, प्रथमानुयोगमाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम् / बोधिसमाधिनिधानं बोधति बोध: समीचीनः // रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 43 36. लोकालोक-विभक्तेर्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च / आदर्शभिव तथा मतिरवैति करणानुयोग च।। -रलकरण्ड श्रावकाचार, 44 [26] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org