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________________ के परिवर्तन को तथा चारों गतियों को दर्पण के सदृश प्रकट करने वाले सम्यग्ज्ञान को करणानुयोग कहते हैं। करण शब्द के दो अर्थ हैं--(१) परिणाम और (2) गणित के सूत्र / द्रव्यानुयोग-जो श्रुतज्ञान के प्रकाश में जीव-अजीद, पुण्य-पाप और बन्ध-मोक्ष आदि तत्त्वों को दीपक के सदृश प्रकट करता है, वह द्रव्यानुयोग है। जिनभद्रमणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य में लिखा है३८—द्रव्य का द्रव्य में, द्रव्य के द्वारा अथवा द्रव्यहेतुक जो अनुयोग होता है, उसका नाम द्रव्यानुयोग है। इसके अतिरिक्त द्रब्य का पर्याय के साथ अथवा द्रव्य का द्रव्य के ही साथ जो योग (सम्बन्ध) होता है, वह भी द्रव्यानुयोग है। इसी तरह बहुवचन--द्रव्यों का द्रव्यों में भी समझना चाहिए। आगम-साहित्य में कहीं संक्षेप से और कहीं विस्तार से इन अनुयोगों का वर्णन है। आर्य वज्र तक आगमों में अनुयोगात्मक दृष्टि से पृथक्ता नहीं थी। प्रत्येक मूत्र की चारों अनुयोगों द्वारा व्याख्या की जाती थी। प्राचार्य भद्रबाहु ने इस सम्बन्ध में लिखा है--कालिक श्रुत अनुयोगात्मक व्याख्या की दृष्टि से अपृथक् थे। दूसरे शब्दों में यों कह सकते है उनमें चरण-करणानुयोग प्रभति अनुयोग चतुष्टय के रूप में अविभक्तता थी। आर्य वज के पश्चात् कालिक सूत्र और दृष्टिवाद की अनुयोगात्मक पृथक्ता (विभक्तता) की गई। आचार्य मलयगिरि४० ने प्रस्तुत विषय को स्पष्ट करते हुए लिखा है-आर्य वन तक श्रमण तीक्ष्ण बुद्धि के धनी थे, अत: अनुयोग की दृष्टि से अविभक्त रूप से व्याख्या प्रचलित थी। प्रत्येक सूत्र में चरण-करणानुयोग आदि का अविभागपूर्वक वर्तन था। मुख्यता की दृष्टि से नियुक्तिकार ने यहाँ पर कालिक श्रुत को ग्रहण किया है अन्यथा अनुयोगों का कालिक-उत्कालिक आदि सभी में अविभाग था / 41 जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने इस सम्बन्ध में विश्लेषण करते हए लिखा है-आर्य वज्र तक जब अनुयोग अपृथक् थे तब एक ही सूत्र की चारों अनुयोगों के रूप में व्याख्या होती थी। 37. जीवाजीवसुतत्त्वे पुण्यापूण्ये च बन्धमोक्षौ च / द्रव्यानुयोग-दीय: श्रुतविद्या लोकमातनुते // -रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 46 38. दब्बस्स जोऽणुप्रोगो दव्वे दव्वेण दव्वहेऊ वा। दबस्म पज्जवेण व जोगो, दब्वेण वा जोगो / / बहवयणोऽवि एवं नेओ जो वा कहे अणवउत्तो। दन्वाणुयोग एसो....." ----विशेषावश्यकभाष्य, 1398-99 39. जावंत अज्जवइरा अपुहुत्तं कालिप्राणुप्रोगस्स / तेणारेण पुहुत्तं कालिप्रसुइ दिट्ठिवाए अ॥ -अावश्यकनियुक्ति, मलयगिरिवृत्ति, गाथा 163, पृ. 383 40. यावदार्यवज्रा-आर्यवजस्वामिनो मुखो महामतयपस्तावत्कालिकानुयोगस्य कालिकश्रुतव्याख्यानस्यापृथक्त्व प्रतिसूत्रं चरण करणानुयोगादीनामविभागेन वर्तनमासीत्, तदासाधूनां तीक्ष्णप्रज्ञत्वात् / कालिकग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थम्, अन्यथा सर्वानुयोगस्यापृथक्त्वमासीत् / / आवश्यक निर्यक्ति, पृ. 383 प्रका. आगमोदय समिति अपहत्ते अणियोगो चत्तारि बार भासए एगो। पूहत्ताणोग करणे ते अत्थ तोवि वोच्छिन्ना // कि बहरेहिं पुहुत्तं कयमह तदणंतरेहि भणियम्मि / तदणतहिं तदभिहिय गहिय सुत्तत्थ सारेहि। —विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2286-2287 41. / 27 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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