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________________ 362) [अनुयोगद्वारसूत्र प्रत्यक्ष के दो भेद हैं—१. इन्द्रियप्रत्यक्ष और 2. नोइन्द्रियप्रत्यक्ष / जिस प्रत्यक्ष ज्ञान की उत्पत्ति में इन्द्रियाँ सहकारी हों वह इन्द्रियप्रत्यक्ष है और जिस ज्ञान की उत्पत्ति इन्द्रिय आदि की सहायता से नहीं होती है, उसे नोइन्द्रियप्रत्यक्ष कहते हैं / 'नो' शब्द यहाँ निषेधवाचक है। तात्पर्य यह हुआ कि जिस ज्ञान को उत्पत्ति केवल आत्माधीन होती है, वह नोइन्द्रियप्रत्यक्ष है। इन्द्रियजन्य ज्ञान को लौकिक व्यवहार की अपेक्षा से प्रत्यक्ष कहा गया है, क्योंकि लोक में ऐसा व्यवहार देखा जाता है--'मैंने अपने नेत्रों से प्रत्यक्ष देखा है।' परमार्थ की अपेक्षा तो इन्द्रियजन्य ज्ञान परोक्ष ही है / नन्दीसूत्र में जो इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा गया है वह भी लोकव्यवहार की अपेक्षा से कहा गया है। इन्द्रियप्रत्यक्ष के पांच भेद श्रोत्र आदि पांचों इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किये जाने वाले अपनेअपने विषयों की अपेक्षा जानना चाहिये / जैसे श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द है, चक्षुरिन्द्रिय का विषय रूप, घ्राणेन्द्रिय का विषय गंध, रसनेन्द्रिय का विषय रस एवं स्पर्शनेन्द्रिय का विषय स्पर्श है। इन्द्रियप्रत्यक्ष के भेदों के क्रम-विन्यास से जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि शास्त्रों में जीवों की इन्द्रियवद्धि का क्रम स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्ष और श्रोत्र, इस प्रकार का है। उस क्रम को छोडकर पश्चानपूर्वी से इसका उल्लेख क्यों किया है? इसका उत्तर यह है कि क्षयोपशम और पूण्य की प्रकर्षता अधिक होने पर जीव पंचेन्द्रिय बनता है और उसके बाद उससे न्यून होने पर चतुरिन्द्रिय / त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रिय के लिये भी यही समझना चाहिये। अतएव पुण्य और क्षयोपशम की प्रकर्षता को ध्यान में रखकर सर्वप्रथम श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्ष का और फिर पश्चानुपूर्वी के क्रम से चक्षुरिन्द्रिय अादि का विधान किया है। अभिप्राय यह है कि पुण्य और क्षयोपशम की मुख्यता से तो पश्चानुपूर्वी से और जाति की अपेक्षा पूर्वानुपूर्वी से इन्द्रियों का क्रम कहा गया है। इन इन्द्रियों के द्वारा उत्पन्न होने वाला ज्ञान इन्द्रियप्रत्यक्ष है। नोइन्द्रियप्रत्यक्ष के तीन भेद हैं-अवधिज्ञातप्रत्यक्ष, मन पर्यायज्ञानप्रत्यक्ष और केवलज्ञानप्रत्यक्ष / इनको नोइन्द्रियप्रत्यक्ष कहने का कारण यह है कि इनकी उत्पत्ति केवल आत्माधीन है। इनमें इन्द्रियव्यापार सर्वथा नहीं होता है किन्तु साक्षात् जीव ही अर्थ को जानता है। अवधिज्ञान आदि तीनों के लक्षण पूर्व में बताये जा चुके हैं। अनुमानप्रमाणप्ररूपणा 440. से किं तं अणुमाणे ? अणुमाणे तिविहे पण्णत्ते / तं-पुव्ववं सेसवं विद्वसाहम्मवं / [440 प्र.] भगवन् ! अनुमान का क्या स्वरूप है ? [440 उ. आयुष्मन् ! अनुमान तीन प्रकार का कहा है--पूर्ववत्, शेषवत् और दृष्टसाधर्म्यवत् / विवेचन-ग्रनुमान शब्द के 'मनु' और 'मान' ऐसे दो अंश हैं। 'अनु' का अर्थ है पश्चात् और मान का अर्थ है ज्ञान / अर्थात् साधन के ग्रहण (दर्शन) और संबन्ध के स्मरण के पश्चात् होने वाले ज्ञान को अनुमान कहते हैं / तात्पर्य यह है कि साधन से साध्य का जो ज्ञान हो, वह अनुमान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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