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________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] है। साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाले हेतु को साधन कहते हैं। अतएव उस हेतु के दर्शन होते ही साध्य-साधन की व्याप्ति का स्मरण होता है, तब जहाँ-जहाँ साध्याविनाभावी साधन होता है, वहाँ-वहाँ साध्य होता है, इस नियम के अनुसार जहाँ अविनाभावी साधन दृष्टिगत हो रहा हो वहाँ अवश्य ही साध्य है, इस प्रकार से परोक्ष अर्थ की सत्ता जानने वाले ज्ञान को अनुमान कहते हैं / यह अनुमान प्रत्यक्षज्ञान की तरह प्रमाण है / पूर्ववत्-अनुमाननिरूपण 441. से कि तं पुतबद ? पुव्ववं माता पुत्तं जहा न→ जुवाणं पुणरागत / काई पच्चभिजाणेज्जा पुलिगेण केणइ // 115 // तं जहा-खतेण वा वर्णण वा मसेण वा लंछणेण वा तिलएण वा / से तं पुत्ववं / 1441 प्र. भगवन् ! पूर्ववत्-अनुमान किसे कहते हैं ? 441 उ. आयुष्मन् ! पूर्व में देखे गये लक्षण से जो निश्चय किया जाये उसे पूर्ववत् कहते हैं। यथा - माता बाल्यकाल से गुम हुए और युवा होकर वापस आये हुए पुत्र को किसी पूर्वनिश्चित चिह्न से पहचानती है कि यह मेरा ही पुत्र है। 115 जैसे- देह में हुए क्षत--घाव, व्रण-कुत्ता प्रादि के काटने से हुए घाव, लांछन, डाम अादि से बने चिह्नविशेष, मष, निल आदि से जो अनुमान किया जाता है, वह पूर्ववत्-अनुमान है। विवेचन--यहाँ अनुमान के पूर्ववत् भेद का लक्षण बताया है / तात्पर्य यह है कि पूर्वज्ञात किसी लिंग (चिह्न) के द्वारा पूर्वपरिचित बस्तु का ज्ञान करना पूर्ववत् अनुमान है / ' यहाँ अनुमानप्रयोग इस प्रकार किया जायेगा- यह मेरा पुत्र है, क्योंकि अन्य में नहीं पाए जाने वाले क्षतादि विशिष्ट लिंग वाला है। कदाचित यह कहा जाये कि इस अनुमानप्रयोग में साधर्म्यदृष्टान्त का अभाव होने से यह साध्य की सिद्धि करने में अक्षम है तो इसका उत्तर यह है कि हेतु दृष्टान्त के बल से ही अपने साध्य का निश्चायक हो, यह नियम नहीं है / परन्तु जिस हेतु में अन्यथानुपपन्नत्व (साध्य के अभाव में हेतु का न होना) है, वह नियम से अपने साध्य का गमक होता है। अर्थात् अन्यथानुपन्नत्व ही हेतु का लक्षण है / दृष्टान्त के अभाव में भी ऐसा हेतु गमक होता है। यदि यह कहा जाये कि जब पुत्र प्रत्यक्षज्ञान का विषय है, तब अनुमानप्रयोग करने की क्या आवश्यकता है ? इसका समाधान यह है, पुरुष का पिंडमात्र दिखने पर भी 'यह मेरा पुत्र है या नहीं ऐसा संदेह बना हुआ है। इस संदेह का निराकरण करने के लिये अनुमानप्रयोग किया जाना संगत है कि--यह मेरा पुत्र है, क्योंकि अमुक असाधारण चिह्न से युक्त है / 1. अनुयोगद्वार. मलयवृत्ति. पृ. 212 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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