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________________ निक्षेपाधिकार निरूपण] / 437 [534 प्र.] भगवन् ! निक्षेप किसे कहते हैं ? [534 उ.] आयुष्मन् ! निक्षेप के तीन प्रकार है / यथा--१. अोघनिष्पन्न, 2. नामनिष्पन्न, 3. सूत्रालापकनिष्पन्न / विवेचन--इष्ट वस्तु का निर्णय करने के लिये अप्रकृत का निराकरण करके प्रकृत का विधान करना निक्षेप कहलाता है / इसके तीन भेदों का अर्थ इस प्रकार है पोनिष्पन्न-सामान्य रूप में अध्ययन आदि श्रुत नाम से निष्पन्न निक्षेप को अोघनिष्पन्ननिक्षेप कहते हैं। नामनिष्पन्न-श्रुत के ही सामायिक प्रादि विशेष नामों से निष्पन्न निक्षेप नामनिष्पन्न निक्षेप कहलाता है। सूत्रालापकनिष्पन्न-'करेमि भंते सामाइयं' इत्यादि सूत्रालापकों से निष्पन्न निक्षेप सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेप है। प्रोघनिष्पन्न निक्षेप 535. से किं तं ओहनिप्फण्णे ? श्रोहनिप्फण्णे चउविहे पण्णत्ते / तं जहा-अज्झयणे अशोणे आए शवणा / [535 प्र.] भगवन् ! मोघनिष्पन्न निक्षेप का क्या स्वरूप है ? [535 उ.] आयुष्मन् ! अोधनिष्पन्न निक्षेप के चार भेद हैं / उनके नाम हैं--१. अध्ययन, 2. अक्षीण, 3, पाय, 4. क्षपणा। विवेचन-सूत्र में ओघनिष्पन्ननिक्षेप के जिन चार प्रकारों का नामोल्लेख किया है, वे चारों सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव आदि रूप श्रुतविशेष के ही एकार्थवाची सामान्य नाम हैं। क्योंकि जैसे पढ़ने योग्य होने से अध्ययन रूप हैं, वैसे ही शिष्यादि को पढ़ाने से सूत्रज्ञान क्षीण नहीं होने से अक्षीण हैं, मुक्ति रूप लाभ के दाता होने से प्राय हैं और कर्मक्षय करने वाले होने से क्षयणा हैं। इसी कारण ये अध्ययन प्रादि श्रुत के सामान्य नामान्तर होने से अोघनिष्पन्ननिक्षेप हैं। अध्ययननिरूपण 536. से कि तं अज्झयणे ? अज्मयणे चउविहे पण्णत्ते / तं जहाणामायणे ठवणज्झयणे दव्यज्झयणे भावज्मयणे / [536 प्र.] भगवन् ! अध्ययन किसे कहते हैं ? [536 उ.] आयुष्मन् ! अध्ययन के चार प्रकार कहे गये हैं, यथा-१. नाम-अध्ययन, 2. स्थापना-अध्ययन, 3. द्रव्य-अध्ययन, 4. भाव-अध्ययन / विवेचन–प्ररूपणा के लिये अधिक से अधिक प्रकारों में वस्तु का न्यास-निक्षेप न भी किया जाये, तो भी कम-से-कम नाम अादि चार प्रकारों से वर्णन किये जाने का सिद्धान्त होने से सूत्र में अध्ययन को नाम आदि चार प्रकारों में निक्षिप्त किया है। आगे क्रम से उनकी व्याख्या की जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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