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________________ [अनुयोगद्वारसूत्र सामायिक, उत्कीर्तन का विषय होने से सामायिक का उत्कीर्तनातुपूर्वी में समवतार होता है तथा गणनानुपूर्वी में जब पूर्वानुपूर्वी से इसकी गणना की जाती है तब प्रथम स्थान पर और पश्चानुपूर्वी से गणना किये जाने पर छठे स्थान पर आता है तथा अनानुपूर्वी से गणना किये जाने पर यह दूसरे आदि स्थानों पर आता है, अतः इसका स्थान अनियत है। नाम में औदायिक आदि छह भावों का समवतार होता है। इसमें सामायिक अध्ययन श्रुतज्ञान रूप होने से क्षायोपशमिक्रभाव में समवतवित होता है / प्रमाण की अपेक्षा जीव का भाव रूप होने से सामायिक अध्ययन का भावप्रमाण में समवतार होता है। भावप्रमाण गुण, नय और संख्या, इस तरह तीन प्रकार का है। इन भेदों में से सामायिकअध्ययन का समवतार गुणप्रमाण और संख्याप्रमाण में होता है। यद्यपि कहीं-कहीं नयप्रमाण में भी इसका समवतार कहा गया है, तथापि तथाविध नय के विचार को विवक्षा नहीं होने से नयप्रमाण में इसका समवतार नहीं कहा है। जीव और अजीव के गुणों के भेद से गुणप्रमाण दो प्रकार का है / सामायिक जीव का उपयोग रूप होने से इसका समवतार जीवगुणप्रमाण में जानना चाहिये तथा जीवगुणप्रमाण भी ज्ञान, दर्शन और चारित्र के भेद से तीन प्रकार का है / सामायिक ज्ञान रूप होने से इसका समवतार ज्ञानप्रमाण में होता है। ज्ञानप्रमाण भी प्रत्यक्ष, अनुमान, पागम और उपमान के भेद से चार प्रकार का है। सामायिक प्राप्तोपदेश रूप होने के कारण से इसका आगमप्रमाण में अन्तर्भाव होता है / किन्तु आगम भी लौकिक और लोकोत्तर के भेद से दो प्रकार का है। तीर्थकरप्रणीत होने से सामायिक का लोकोत्तर-पागम में समवतार होता है। लोकोत्तर-पागम भी प्रात्मागम, अनन्तरागम और परंपरागम के भेद से तीन प्रकार का है / इन तीनों प्रकार के आगमों में सामायिक का समवतार जानना चाहिये। संख्याप्रमाण नाम, स्थापना, द्रव्य, प्रौपम्य, परिमाण, ज्ञान, गणना और भाव के भेद से पाठ प्रकार का है / इन आठ प्रकारों में से सामायिक का अन्तर्भाव पांचवें परिमाणसंख्याप्रमाण में हुआ है। वक्तव्यता तीन या दो तरह की कही गयी है। इनमें से सामायिक का समवतार स्वसमयवक्तव्यता में जानना चाहिये / इसी प्रकार चतुर्विशतिस्तव आदि अध्ययनों के समवतार के विषय में जानना चाहिये। समवतार का वर्णन करने के साथ उपक्रमद्वार की वक्तव्यता पूर्ण हुई। अब निक्षेप नामक अनुयोगद्वार का निरूपण करते हैं। निक्षेपनिरूपण 534. से कि तं निक्खेवे ? निक्खेवे तिविहे पण्णत्ते / तं जहा--ओहनिष्फण्णे य नामनिप्फण्णे य सुत्तालावगनिप्फण्णे य / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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