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________________ समवतार निरूपण [435 माया लोभे रागे मोहणिज्जे अट्टकम्भवगडीओ आयसमोयारेण आयभावे समोयरंति, तदुभयसमोयारेणं छविहे भावे समोयरंति आयभावे य / एवं छबिहे भावे जीने जीवस्थिकाए आयसमोयारेणं आयभावे समोयरति, तदुभयसमोयारेणं सम्वदन्वेसु समोयरति आयभावे य / एत्थं संगहणिगाहा कोहे माणे माया लोभे रामे य मोहणिजे य / पगडी भावे जीवे जीव स्थिय सव्वदन्वा य / / 124 // से तं भावसमोयारे / से तं समोयारे / से तं उवक्कमे / [533 प्र.] भगवन् ! भावसमवतार का क्या स्वरूप है ? [533 उ.] अायुष्मन् ! भावसमवतार दो प्रकार का कहा गया है / यथा--आत्मसमवतार और तदुभयसमवतार / अात्मसमवतार की अपेक्षा क्रोध निजस्वरूप में रहता है और तदुभयसमवतार से मान में और निजस्वरूप में भी समवतीर्ण होता है। इसी प्रकार मान, माया, लोभ, राग, मोहनीय और अष्टकर्म प्रकृतियाँ प्रात्मसमवतार से प्रात्मभाव में तथा तदुभयसमवतार से छह प्रकार के भावों में और आत्मभाव में भी रहती हैं। इसी प्रकार (प्रौदयिक प्रादि) छह भाव जीव, जीवास्तिकाय, अात्मसमवतार की अपेक्षा निजस्वरूप में रहते हैं और तदुभयसमवतार की अपेक्षा द्रव्यों में और धात्मभाव में भी रहते हैं / इनकी संग्रहणी गाथा इस प्रकार है क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, मोहनीयकर्म, (कर्म) प्रकृति, भाव, जीव, जीवास्तिकाय और सर्वद्रव्य (आत्मसमवतार से अपने-अपने स्वरूप में और तदुभयसमवतार से पररूप और स्व-स्वरूप में भी रहते हैं) / 124 ___ यही भावसमवतार है / इसका वर्णन होने पर सभेद समवतार और उपक्रम नाम के प्रथम विवेचन.. क्रोध कषाय आदि जीव के वैभाविक भावों के तथा ज्ञानादि स्वाभाविक भावों के समवतार को भावसमवतार कहते हैं / इसके भी आत्मसमवतार और तदुभयसमवतार ये दो प्रकार हैं। सूत्र में क्रोधादिक के दोनों प्रकार के समवतार का संक्षेप में उल्लेख किया है / उसका आशय यह है-क्रोधादि प्रौदयिकभाव रूप होने से उनका भावसमवतार में ग्रहण किया है, अहंकार के बिना क्रोध उत्पन्न नहीं होता है, इसलिए उभयसमवतार की अपेक्षा क्रोध का मान में और अपने निजरूप में समवतार कहा है / क्षपकश्रेणी में आरूढ जीव जिस समय मान का क्षय करने के लिए प्रवृत्त होता है उस समय वह मान के दलिकों को माया में प्रक्षिप्त करके क्षय करता है, इस कारण उभयसमवतार माया में और निजरूप में भी और अात्मसमवतार की अपेक्षा अपने निजरूप में ही समवतार बताया है / इसी प्रकार माया, लोभ, राग, मोहनीयकर्म, अष्टकर्मप्रकृति प्रादि जीवपर्यन्त का उभयसमवतार एवं आत्मसमवतार समझ लेना चाहिये। यद्यपि उपक्रमद्वार में शास्त्रकार को सामायिक प्रादि षडावश्यक-अध्ययनों का समवतार करना अभीष्ट है, किन्तु सुगम होने के कारण यहाँ उसका सूत्र में वर्णन नहीं किया है। वह इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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