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________________ [अनुयोगद्वारसूत्र [532 प्र.] भगवन् ! कालसमवतार का क्या स्वरूप है ? [532 उ.] अायुष्मन् ! कालसमवतार दो प्रकार का कहा गया है यथा--प्रात्मसमवतार, तदुभयसमवतार / जैसे अात्मसमवतार की अपेक्षा समय प्रात्मभाव में रहता है और तदुभयसमवतार की अपेक्षा प्रावलिका में भी और आत्मभाव में भी रहता है। इसी प्रकार प्रानप्राणा, स्तोक, लब, मुहूर्त, अहोरात्र, (दिन-रात), पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, वर्षशत, वर्षसहस्र, वर्षशतसहस्र, पूर्वाग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, अटटांग, अटट, अववांग, अवव, हूहूकांग, हूहूक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अक्षनिकुरांग, अक्षनिकुर, अयुतांग, अयुत, नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, चूलिकांग, चूलिका, शोषंग्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका, पल्योपम, सागरोपम ये सभी प्रात्मसमवतार से आत्मभाव में और तदुभयसमवतार से अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी में भी और आत्मभाव में भी रहते हैं। अवपिणी-उत्सपिणी काल अात्मसमवतार की अपेक्षा आत्मभाव में रहता है और तदुभयसमवतार की अपेक्षा पुद्गलपरावर्तन में भी और आत्मभाव में भी रहता है। पुदगलपरावर्तनकाल अात्मसमवतार की अपेक्षा निजरूप में रहता है और तदुभयसमवतार से अतीत और अनागत (भविष्यत् काल में भी एवं प्रात्मभाव में भी रहता है। अतीत-अनागत काल आत्मसमवतार की अपेक्षा प्रात्मभाव में रहता है, तदुभयसमवतार की अपेक्षा सर्वाद्धाकाल में भी रहता है और आत्मभाव में भी रहता है। इस तरह कालसमवतार का विचार है / विवेचन–समयादि रूप से जो जाना जाता है उसे काल कहते हैं / वह अनन्त समय वाला है। काल की न्यूनतम आद्य इकाई समय और तन्निष्पन्न पावलिका आदि रूप कालविभाग का उत्तरोत्तर बड़े कालविभाग में समवतरण करना कालसमवतार है। इसके भी पूर्ववत् दो भेद हैं--प्रात्मसमवतार और तदुभयसमवतार / यात्मसमवतार से सभी काल भेद अपने ही स्वरूप में रहते हैं तथा तदुभयसमवतार से परभाव और आत्मभाव दोनों में रहते हैं / जैसे पानप्राण प्रात्मभाव में भी और पर भाव स्तोक में भी समवतीर्ण होता है। इसी प्रकार अन्य कालभेदों के लिए जानना चाहिए / किन्तु पुद्गलपरावर्तन का तदुभयसमवतार की अपेक्षा प्रतीत-अनागत काल में समवतार बताने का कारण यह है कि पुद्गलपरावर्तन असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीकालप्रमाण है, जिससे समयमात्र प्रमाण वाले वर्तमान काल में उस बृहत्कालविभाग का समवतार संभव नहीं होने से अनन्त समय वाले अतीत-अनागत काल का कथन किया है। इस प्रकार कालसमवतार का स्वरूप जानना चाहिये। भावसमवतार 533. से कि तं भावसमोयारे ? भावसमोयारे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-आयसमोयारे य तदुभयसमोयारे य। कोहे आयसमोयारेणं आयभावे समोयरति, तदुभयसमोयारेणं माणे समोयरति आयभावे य / एवं माणे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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