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________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] 3. भविष्यत्काल सम्बन्धी अनुमान, यथा-सभी दिशाओं में धुंग्रा हो रहा है, आकाश में भी प्रशभ उत्पात हो रहे हैं, इत्यादि से यह अनुमान कर लिया जाता है कि यहाँ कूवष्टि होगी, क्योंकि वृष्टि के अभाव के सूचक चिह्न दृष्टिगोचर हो रहे हैं / भविष्य में कुवृष्टिसूचक नक्षत्र इस प्रकार हैं आग्नेय मंडल के नक्षत्र--१. विशाखा 2. भरणी 3. पुष्य 4. पूर्वाफाल्गुनी 5. पूर्वाभाद्रपदा 6. मघा और 7. कृत्तिका / ___ वायव्य मंडल के नक्षत्र--१. चित्रा, 2. हस्त, 3. अश्वनी, 4. स्वाति, 5. मार्गशीर्ष, 6. पुनर्वसु और 7. उत्तराफाल्गुनी। ___ इन सबको अनुमान प्रमाण कहने का कारण यह है कि इनमें अनु-लिंगग्रहण और अविनाभावसंबन्ध के स्मरण के पश्चात् बोध होता है / ___ अनुमानप्रयोग के अवयव-प्रासंगिक होने से यहाँ अनुमानप्रयोग के अवयवों का कुछ विचार करते हैं / अनुमानप्रयोग के अवयवों के विषय में आगमों में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा गया है / लेकिन प्राचीन वादशास्त्र को देखने से यह पता चलता है कि प्रारंभ में किसी साध्य की सिद्धि में अधिकांशतः दृष्टान्त की सहायता अधिक ली जाती थी, जो अनुयोगद्वारसूत्रगत अनुमानप्रयोगों के उदाहरणों से स्पष्ट है। परन्तु जब हेतु का स्वरूप व्याप्ति के कारण निश्चित हुप्रा और हेतु से ही मुख्य रूप से साध्य की सिद्धि मानी जाने लगी तब हेतु और उदाहरण इन दोनों को साध्य के साथ मिलाकर प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण ये तीन अनुमान के अंग बन गये। फिर दर्शनान्तरों के शास्त्रों के दूसरे-दूसरे अवयवों का भी समावेश होने से इनकी संख्या दस तक पहुंच गई। आचार्य भद्रवाह ने दशवकालिकनियुक्ति में अतुमानप्रयोग के अवयवों की चर्चा की है। यद्यपि संख्या गिनाते हुए उन्होंने पांच' और दस अवयव होने की बात कही है किन्तु अन्यत्र उन्होंने मात्र उदाहरण या हेतु और उदाहरण से भी अर्थसिद्धि होने की सूचना दी है। दस अवयवों को भी उन्होंने दो प्रकार से गिनाया है। इस प्रकार भद्रबाहु के मत में अनुमानवाक्य के दो, तीन, पांच या दस अवयव होते हैं / अवयव इस प्रकार हैं-- 2. प्रतिज्ञा, उदाहरण; 3. प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण; 5. प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त, उपसंहार, निगमन / 10. (क) प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञाविशुद्धि, हेतु, हेतुविशुद्धि, दृष्टान्त, दृष्टान्तविशुद्धि, उपसंहार, उपसंहारविशुद्धि, निगमन, निगमनविशुद्धि / 1. दशवकालिक नियुक्ति 2. वही गाथा 50 3. वही गाथा 49 4. वही गाथा 137 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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