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________________ 218] [अनुयोगद्वारसूत्र [294 उ.] आयुष्मन् ! सामासिकनामनिष्पन्नता के हेतुभूत समास सात हैं। वे इस प्रकार 1. द्वन्द्व, 2. बहुव्रीहि, 3. कर्मधारय, 4. द्विगु, 5. तत्पुरुष, 5. अव्ययीभाव और 7. एकशेष / 91 विवेचन-सूत्र में सामासिक नाम की प्ररूपणा के लिये सात समासों के नाम बताये हैं। दो या दो से अधिक पदों में विभक्ति आदि का लोप करके उन्हें संक्षिप्त करना--इकट्ठा करना समास कहलाता है। समासयुक्त शब्द जिन शब्दों के मेल से बनता है, उन्हें खंड कहते हैं। जिन शब्दों में समास होता है उनका बल एकसा नहीं होता, किन्तु उनमें से किसी का अर्थ मुख्य हो जाता है और शेष शब्द उस अर्थ को पुष्ट करते हैं / अपेक्षाभेद से समास के द्वन्द्व प्रादि सात भेद हैं / द्वन्द्वसमास 265. से कि तं दंवे समासे ? दंदे समासे दन्ताश्च ओष्ठौ च दन्तोष्ठम्, स्तनौ च उदरं च स्तनोदरम्, वस्त्रं च पात्रं च वस्त्रपात्रम्, अश्वश्च महिषश्च अश्वमहिषम्, अहिश्च नकुलश्च अहिनकुलम् / से तं दंदे समासे। [295 प्र.] भगवन् ! द्वन्द्वसमास का क्या स्वरूप है ? [295 उ.] आयुष्मन् ! 'दंताश्च प्रोष्ठौ च इति दंतोष्ठम्, 'स्तनौ च उदरं च इति स्तनोदरम्,' 'वस्त्रं च पात्रं च वस्त्रपात्रम्,' 'अश्वश्च महिषश्च इति अश्वमहिषम्', 'अहिश्च नकुलश्च इति अहिनकूलम', ये सभी शब्द द्वन्द्वसमास रूप हैं। विवेचन-सूत्र में उदाहरणों के द्वारा द्वन्द्वसमास का प्राशय स्पष्ट किया है। तत्संबन्धी विशेष वक्तव्य इस प्रकार है जिस समास में सभी पद समान रूप से प्रधान होते हैं तथा जिनके बीच के 'और' अथवा 'च' शब्द का लोप हो जाता है, किन्तु विग्रह करने पर संबन्ध के लिये पुनः 'च' अथवा 'और' शब्द का प्रयोग किया जाता है, उसे द्वन्द्वसमास कहते हैं / द्वन्द्वसमास के शब्दों से यदि एक मिश्रित वस्तु का बोध होता है तो वे एकवचन में प्रयुक्त होते हैं। यथा-~-मैंने दाल-रोटी खा ली है, उनमें ऊंच-नीच नहीं है। किन्तु जिन शब्दों से मिश्रित वस्तु का बोध नहीं होता, वे बहुवचन में प्रयुक्त होते हैं / जैसे सीता-राम वन को गये। यह समास समाहार द्वन्द्व और इतरेतर द्वन्द्व के भेद से दो प्रकार का है / समाहार द्वन्द्व में प्रत्येक पद की प्रधानता नहीं होती, प्रत्युत सामूहिक अर्थ का बोध होता है। इसमें सदा नपुंसकलिंग तथा किसी एक विभक्ति का एकवचन ही रहता है / / सूत्रोक्त उदाहरणों में से 'दन्तोष्ठम्' और 'स्तनोदरम्' में प्राणी के अंग होने से एकवद्भाव हुआ है। 'वस्त्रपात्रम्' में अप्राणी जाति होने से तथा 'अश्वमहिषम्' और 'अहिनकुलम्' पदों में शाश्वत विरोध होने के कारण एकवचन का प्रयोग हुआ जानना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003500
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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