________________ 118] अनुयोगबारसूत्र (घ) समवतार 189. से कि तं सभोयारे ? समोयारे गम-ववहाराणं आणुपुस्विदव्वाइं कहि समोयरंति ? जाव तिणि वि सट्ठाणे सट्ठाणे समोयरंति ति भाणियव्वं / से तं समोयारे / [189 प्र.] भगवन् ! समवतार का क्या स्वरूप है ? नैगम-व्यवहारनयसंमत अनेक आनुपूर्वी द्रव्यों का कहाँ समवतार (अन्तर्भाव) होता है ? यावत्--- 189 उ.] तीनों ही स्व-स्व स्थान में समवतरित होते हैं। इस प्रकार समवतार का स्वरूप जानना चाहिये। विवेचन- सूत्र में समवतार संबन्धी प्राशय का संकेत मात्र किया है। स्पष्टीकरण इस प्रकार है समवतार अर्थात् उन-उन द्रव्यों का स्व-स्व जातीय द्रव्यों में अन्तर्भूत होना / इस अपेक्षा पूर्वपक्ष के रूप में निम्नलिखित प्रश्न हैं--- क्या नैगम-व्यवहारमयसंमत समस्त प्रानुपूर्वीद्रव्य प्रानुपूर्वीद्रव्यों में या अनानुपूर्वीद्रव्यों में या प्रवक्तव्यकद्रव्यों में अन्तर्भूत होते हैं ? इसी प्रकार के तीन-तीन प्रश्न अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक द्रव्य-विषयक भी जानना चाहिये / इस तरह कुल नौ प्रश्न हैं। जिनका उत्तर इस प्रकार है 1. नैगम-व्यवहारनयसंमत सभी प्रानुपूर्वीद्रव्य आनुपूर्वीद्रव्यों में ही समाविष्ट होते हैं / किन्तु अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों में समाविष्ट नहीं होते हैं / 2. नैगम-व्यवहारनयमान्य समस्त अनानुपूर्वीद्रव्य अपनी जाति (अनानुपूर्वीद्रव्य ) में अन्तर्भूत होते हैं। उनका विजातीय प्रानुपूर्वी या अवक्तव्य द्रव्यों में अन्तर्भाव नहीं होता है। 3. नैगम-व्यवहारनयसंमत अवक्तव्यद्रव्य अवक्तव्यकद्रव्यों में ही अन्तर्भूत होते हैं, अन्य आनुपूर्वी आदि द्रव्यों में नहीं। सारांश यह कि आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक ये तीनों ही प्रकार के द्रव्य अपनेअपने स्थान (जाति) में ही अन्तर्भूत होते हैं / (ङ) अनुगम 190. से कितं अणुगमे ? अणुगमे णवविहे पण्णत्ते / तं जहा संतपयपरूवणया 1 जाव अप्पाबहुं चेव 9 // 15 // [190 प्र.] भगवन् ! अनुगम का क्या स्वरूप है ? [190 उ.] प्रायुष्मन् ! अनुगम नी प्रकार का कहा है। वे प्रकार हैं-१ सत्पदप्ररूपणा यावत् 9 अल्पबहुत्व / क्वेिचन-सूत्र में अनुगम के नौ प्रकारों में से पहले सत्पदप्ररूपणता और अंतिम अल्पबहुत्व का नामोल्लेख द्वारा और शेष का ग्रहण जाव-यावत् पद द्वारा किया है। उन सभी नौ प्रकारों के नाम अनुक्रम से इस प्रकार हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org