________________ 4 // [अनुमोगद्वारसूत्र उक्त समग्र कथन का सारांश यह हुआ कि जिसके द्वारा वस्तुओं का स्वरूप जाना जाये, अथवा जो निज स्वरूप का प्रकाशक है, अथवा जो ज्ञानावरणकर्म के क्षय या क्षयोपशम के निमित्त से उत्पन्न होता है, वह ज्ञान है / ज्ञान की पंचप्रकारता का कारण-ज्ञान के पांच प्रकार-भेद अर्थापेक्षया तीर्थंकरों ने और सूत्र की अपेक्षा गणधरों ने प्ररूपित किये हैं। यह संकेत 'पण्णत्त-प्रज्ञप्त' शब्द द्वारा किया गया है।' अथवा 'पण्णत्तं' शब्द की संस्कृतछाया प्राज्ञाप्तं भी होने से यह अर्थ हुआ कि ज्ञान की पंचप्रकारता का बोध गणधरों ने प्राज्ञों-तीर्थकर भगवन्तों से प्राप्त प्राप्त किया है / अथवा 'पण्णत्ता' पद की संस्कृतछाया प्राज्ञात भी होती है। अतएव इस पक्ष में प्राज्ञों-गणधरों द्वारा आत्तां--- तीर्थकरों से ग्रहण किया है, यह अर्थ हुन्ना / अथवा 'प्रज्ञाप्तं' यह संस्कृत छाया होने पर यह अर्थ हुमा कि भव्य जीवों ने स्वप्रज्ञा-बुद्धि से ज्ञान की पंचप्रकारता का बोध प्राप्तं--प्राप्त किया है। सारांश यह कि सूत्रकार ने 'पण्णत्त' शब्द प्रयोग द्वारा अपनी लघुता प्रकट करते हुए यह स्पष्ट किया है कि स्वबुद्धि या कल्पना से यह कथन नहीं करता हूँ, प्रत्युत तीर्थकर भगवन्तों द्वारा निरूपित प्राशय को ही यहाँ स्पष्ट कर रहा हूँ / ' ज्ञान के पांच भेदों के लक्षण-क्रमश: इस प्रकार हैं आभिनिबोधिकज्ञान-योग्य देश में अवस्थित वस्तु को मन और इन्द्रियों की सहायता से जानने वाले बोध-ज्ञान को आभिनिबोधिकज्ञान कहते हैं। यह अर्थ अभि-नि-बोध इन शब्दों से प्रकट होता है। इस प्राभिनिबोधिकज्ञान का अपर नाम मतिज्ञान भी है। यहाँ ज्ञान शब्द सामान्य ज्ञान का तथा अभिनिबोध शब्द इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होने वाले विशिष्ट ज्ञान का बोधक है। अतः 'प्राभिनिबोधिक. च तज्ज्ञानं च प्राभिनिबोधिकज्ञान' इस तरह इन दोनों सामान्य-विशेष-ज्ञानों में समानाधिकरणता है / श्रुतज्ञात-बोले गये शब्द द्वारा अर्थग्रहण रूप उपलब्धिविशेष को श्रुतज्ञान कहते हैं। श्रत अर्थात शब्द / कारण में कार्य का उपचार करने से शब्द को भी श्रतज्ञान शब्द श्रोता को अभिलषित अर्थ का ज्ञान कराने में कारण है। यह ज्ञान भी मन और इन्द्रियों के निमित्त से उत्पन्न होता है, फिर भी इसकी उत्पत्ति में इन्द्रियों की अपेक्षा मन की मुख्यता होने से इसे मन का विषय माना गया है। ___ अवधिज्ञान-'अवधानमवधिः इन्द्रियाद्यनपेक्षमात्मनः साक्षादर्थग्रहणम्, अवधिरेव ज्ञानमवधिज्ञानम्'- अर्थात् इन्द्रियों और मन की सहायता के विना केवल ग्रात्मा द्वारा होने वाले अर्थग्रहण को अवधि कहते हैं और अवधिरूप जो ज्ञान वह अवधिज्ञान कहलाता है। मथवा मर्वा योकि 1. अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं / -प्राब. नियुक्ति, गाथा 62 2. 'पण्णतंति' प्रज्ञप्तमर्थतस्तीर्थकरैः सूत्रतो गणधरः प्ररूपितमित्यर्थः / प्रनेन स्त्रकृता प्रात्मन: स्वमनीषिकापरिहता भवति / -अनु. सूत्रवृत्ति, पृष्ठ 1 3. श्रुतमनिन्द्रियस्य / -तत्त्वार्थसूत्र 2 / 22 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org